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जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ
"अहो जगदगुरु एक सुनियो अरज हमारी । तुम प्रभु दीनदयालु, मैं दुखिया संसारी ॥ "
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और यह भी सच है कि उसका पुकारना कभी निरर्थक नहीं गया । दीनदयालुने दीनपर दया कर उसे भी 'दीनदयालु' बना लिया । ऐसे भगवान्का यदि कोई दास बने तो ठीक ही है। यदि न बन पाये तो दुर्भाग्य है ।
हिन्दी के अनेक जैन कवियोने दास्यभावकी भक्ति की है । उसका विवेचन तीसरे अध्याय मे किया गया है । यह उनके लिए एक उत्तर होगा, जो जैन भक्ति में दास्यभाव नही मानते। उनके कथनानुसार आत्मामे परमात्मा बननेकी ताक़त मौजूद है, फिर उसे दासता करनेकी क्या आवश्यकता है । उनके सिद्धान्तानुसार आत्मा और परमात्मा समान है, फिर दासताको स्थान ही नही है । इसके अतिरिक्त वे भगवान्मे कर्तृत्व भी नही मानते, इसलिए भी दासताका खण्डन करते हैं । किन्तु आत्मा अभी परमात्मा बनी नही है, उसमे उन तत्त्वोंका आविर्भाव नहीं हुआ है, जो परमात्मामे मौजूद है, अतः यदि वह परमात्मामे सेवाभाव रखे तो अनुपयुक्त नही है । जहाँतक कर्त्तृत्वका सम्बन्ध है, वह भले ही प्रेरणात्मक हो, है तो, फिर दास्यभाव भी निभ ही सकता है । जैन कवियोंने दास्यभक्ति के अनेक पदोंका निर्माण किया है ।
आराध्य की महत्ता
आराध्य की महत्ता स्वीकार किये बिना श्रद्धा ही उत्पन्न नहीं होती, भक्ति तो दूरी बात है । इसी महत्ता के साथ भक्तकी अपनी लघुताको स्वीकृति स्वतः
जुड़ी है । अर्थात् भक्त जबतक अपनेको लघु और आराध्यको महान् स्वीकार नहीं करता, वह भक्त ही नही | जैन भक्तमे भी ये दोनो प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं | आराध्य की महत्ता प्रकट करनेके अनेक ढंग है, और उनमे एक यह भी है कि अपने आराध्यको अन्य देवोंसे बड़ा बताया जाये । सूर और तुलसीने कृष्ण और रामको ब्रह्मा, महेश और बुद्धसे बड़ा कहा है । जैन कवियोने भी जिनेन्द्रको अन्य देवोंसे बड़ा माना । ऐसा करके उन्होंने अपने इष्टदेवमे अनन्य भाव ही प्रकट किया है। उन्होंने किसी अन्यके प्रति कटुता अभिव्यक्त नहीं की । अपने इष्टदेवको सर्वोत्कृष्ट बताना भक्तका कर्तव्य है, किन्तु जिन अन्य देवोसे उत्कृष्ट दिखाया जाये, उनके प्रति घृणात्मक भाव प्रकट करना ठीक नही है । सगुणोपासक कवि निर्गुणब्रह्मका खण्डन कटुताके साथ करते रहे है । उनका यह कार्य निषेधात्मक