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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अधिक है, विधेयक कम । निर्गुणब्रह्मका खण्डन सगुणब्रह्मकी भक्ति नही है। सगुण और निर्गुणको एक माननेसे जैन कवि इस संघर्षसे नितान्त मुक्त रहे है । उन्होंने जनातिरिक्त देवोसे अपने देवको बड़ा तो बताया, किन्तु उनको बुरा भी नहीं कहा । जैन संस्कृत काव्योमें तो कहीं-कही ब्रह्मा, विष्णु, महेशके प्रति तीखापन भी दिखाई देता है, किन्तु जैन हिन्दो रचनाओमे ऐसा नही है। ___ जैन कवियोने आराध्यकी महत्ता एक अन्य शैलीसे भी प्रकट की है। यह शैली विधेयक है और प्रथमकी अपेक्षा उदारतापरक भो। इसमे भक्त कवि अन्य देवोंकी आराधना तक करनेको तैयार रहता है, किन्तु तभी, जब उसमें अपने इष्टदेवके गुण घटित हों। रामके भक्त तुलसीदास कृष्णकी वन्दनाको भी तैयार है, किन्तु जब वे मुरली छोड़कर 'धनुष-बाण' धारण करें। एक जैन कवि शंकरकी पूजा करना चाहता है, किन्तु तभी जब शंकर प्रलय करना छोड़कर 'शं' अर्थात् शान्ति करनेवाले बन जायें। इसी भाँति वे 'ब्रह्मा' की उपासना करनेको भी तैयार है, किन्तु तभी जब वह उर्वशीके मोह-जालसे निकलकर 'क्षुत्तृष्णाश्रमराग रोगरहित' हो जायें। आचार्य हेमचन्द्रने तो अपने आराध्यका नाम ही नहीं लिया। उनके लिए तो वे सभी इष्टदेव है, जिनमे रागादिक दोष क्षयको प्राप्त हो गये है,
"भवबीजाकरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया ।
वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥" भक्तको लघुताको बात ऊपर कही जा चुकी है। आराध्यकी महत्ताके समक्ष भक्तको अपना प्रत्येक गुण और कार्य लघु ही प्रतीत होता है। भक्तिके क्षेत्रमें लघुताका भाव हीनताका द्योतक नही है । भक्त जितना ही अधिकाधिक अपनेको लघु अनुभव करता जायेगा, उतना ही विनम्र होता जायेगा और आराध्यके समीप पहुंचता जायेगा। तुलसीको 'विनयपत्रिका' मे 'लघुता' प्रमुख है। जैन कवि कुमुदचन्द, जगजीवन, मनराम, बनारसीदास, रूपचन्द और भूधरदासके पदोमे भी लघुताको ही मुख्यता दी गयी है । बनारसीदासका एक पद्य देखिए,
१. आचार्य अकलंक, अकलंकस्तोत्र सटीक, दूसरा और चौथा श्लोक । २. नाटकसमयसार, उत्थानिका, १२वाँ पद्य ।