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________________ जैन भक्ति: प्रवृत्तियाँ "जैसे कोउ मूरख महासमुद्र तिरिबे को, भुजानि सों उद्यत भयौ है तजि नावरौ । जैसें गिरि ऊपरि बिरखफल तोरिबे कों, बावनु पुरुष कोऊ उमंगै उतावरौ । जैसे जलकुण्ड में निरखि शशि प्रतिबिम्ब ताके गहिबे को कर नीचो करे टावरौ । तैसैं मैं अलपबुद्धि नाटक आरम्भ कीनौ गुनी मोहि हँसेंगे कहेंगे कोउ बावरौ ॥" लघुताके साथ ही दोनताका भाव भी जन्म लेता है। दीनताका अर्थ है ग़रीबी, ग़रीबी केवल रुपये-पैसेकी नहीं, हर तरहकी। भक्तमे न तो गुण है और न पुण्य करनेकी सामर्थ्य । उसको जिन्दगी पापोंमे कटती है। इसी कारण उसे बारम्बार गर्भके दुःखोंको झेलना पड़ता है । वह जोवन-भर बेचैन रहता है। कोई भी भगवान् उसके इन दुःखोंको तभी दूर कर सकता है, जब वह 'दीनदयालु हो। अहिंसाको परम धर्म माननेके कारण जिनेन्द्र तो स्वभावसे ही 'परमकारुणिक' होते हैं। उन्होने सदैव दोनोंपर दया की है। हिन्दीके जैन कवियोंने उनके 'दीनदयालु' रूपको लेकर बहुत कुछ लिखा है। उनमे पं० दौलतरामकी 'अध्यात्म बारहखड़ी'. भैया भगवतीदासका 'ब्रह्मविलास', भधरदासका 'भधरविलास', द्यानतरायका 'द्यानतविलास' तथा मनरामका 'मनरामविलास' प्रसिद्ध है। इनमें भगवान्के उस 'विरुद' का निरूपण है, जिसके सहारे दीन तरते है, भले ही उन्होने हीन कर्म किया हो। ___ भगवान् इसलिए भी महान् है कि वह अशरणोको शरण देता रहा है । जीव अपने ही पाप और अपराधोके कारण ऐसा बन जाता है कि उसे कोई शरण देनेको तैयार नहीं होता। ऐसोंपर भगवान् दया करता है। उनके अपराधोको परिमाजित कर उन्हे भी भवसमुद्रसे तार देता है। जिनेन्द्र जब 'दीनदयालु' है तो 'अशरणशरण' भी है। अशरणोंको शरण देना भी दयासे ही सम्बन्धित है। जैन कवियोने जिनेन्द्रके इस रूपको लेकर अनेक अनुभूतिपरक 'पदो'का निर्माण किया है । पं० दौलतरामका कथन है, “जाऊँ कहाँ तजि शरण तिहारे । चूक अनादितनी या हमरी, माफ करौ करुणा गुन धारे ॥ डूबत हौं भवसागर में अब, तुम बिनु को मोहि पार निकारे ।"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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