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________________ हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि निर्माण किया था । वह भी बड़ौत के शास्त्र भण्डारमे उपलब्ध हुआ है । भवानीदासके 'पंचमंगलकाव्य' की एक प्रति बनारस मे रामघाटपर स्थित प्राचीन जैन मन्दिर मे मौजूद है । भट्टारक धर्मचन्दका 'पंचमंगल' जयपुर के जैन मन्दिर मे उपलब्ध है । इन काव्योमे जैन कवियोका हृदय जैसे उमड़ ही पडा है । जगराम लघुमंगलका एक वह दृश्य देखिए, जिसमे छप्पन कुमारिकाएँ माँकी सेवा करती है, पाटौदी के १० "ईक सनमुष दरपन लीया, बन आभूषन ईकसै, ईक पूँछत एक पहेली का, ईक उतर सुनि निसि दिन अति आनन्द स्यौ, इम नव मास बिताबै जी ॥ महिमा त्रिभुवन नाथ की, कवि कहाँ लौं वरणावै जी । भक्ति परे ना बसि भयो, जगतराम जस गावै जी ॥ ईक ठाडी चंवर दुराबै जी । मधुरी बैन बजावै जी ॥ हरषाचै जी । दास्यभाव भक्तको भगवान्‌का दास होना ही चाहिए। वह दासता जो भक्त के हृदय में जन्म लेती है, सात्त्विकी ही होती है। उसका भौतिक स्वार्थसे युक्त दासताके राजसिक पहलूसे सम्बन्ध नहीं होता है। जैन भक्त भगवान्‌का दास है । वह भगवान् की सेवामें अपना जीवन बिता देना चाहता है । हिन्दोके अनेक जैन कवियोने भव भवमे जिनेन्द्रकी सेवा करनी चाही है । उन्होंने न तो सांसारिक सुख माँगे और न मोक्ष हो, माँगी तो सेवा । सेवाजन्य आनन्द ही उनके जीवनका चरम लक्ष्य बना रहा । उनकी यह आकांक्षा पवित्र थी - स्वार्थरहित । १ जैन भक्तका आराध्य भी कैसा उदार और दयालु है कि वह अपने दासको अपने समान बना लेता है । आचार्य समन्तभद्रने लिखा है कि हे भगवन् ! जो आपकी शुश्रूषा करते हैं, वे शीघ्र ही आप जैसी लक्ष्मीसे सुशोभित होते है । इसीलिए कवि बनारसीदासने ज्ञानीके लिए भी सेवाभावकी भक्ति अनिवार्य बतलायी है । जो भगवान् दोनोंपर इतनी दया करे कि उन्हें अपने समान बना ले, सच ही वह 'दीनदयाल' है । इसी कारण जैन भक्त बार-बार उस 'दीनदयालु' को पुकारता है " १. देखिए स्तुतिविद्या, ७० वॉ श्लोक । २. कवि भूधरदासकी 'अहो जगदगुरु' वाली विनती, जो 'बृहज्जिनवाणीसंग्रह' में प्रकाशित हो चुकी है।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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