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जैन मक्ति : प्रवृत्तियाँ
राधाने कृष्णके व्यक्तित्वमें एक ऐसा जादू माना है, जिससे समीपस्थोंको परम निधियां और रत्न प्राप्त हो जाते है। कृष्ण कुछ देते नहीं, उनके 'दर्शन' मे ऐसी शक्ति है, जिसकी प्रेरणा भक्तको सब कुछ पानेमे समर्थ बनाती है । जिसकी केवल सदृष्टि से ही प्रथित गुण आ जाते हों, वह जादू ही है और क्या । इसे ही जैन आचार्य प्रेरणा कहते रहे है, और जैन-कवि उसीके प्रेरणा-दीप जलाते रहे है। रायचन्दकी सीताने राममे, हेमविजयकी राजुलने नेमिकुमारमे, कुशललाभको अंजनाने पवनदेवमे प्रेरणाजन्य सौन्दर्यको अनुभूतियां की है।
पंचकल्याणक स्तुतियाँ
तीर्थकरोके गर्भमे आने, जन्म लेने, तपके लिए जाने, केवलज्ञानके उत्पन्न होने और मोक्ष प्राप्त करनेके अवसरपर जो उत्सव मनाये जाते है, उन्हे 'कल्याणक' कहते है। वे कल्याण करते हैं, अतः उनकी यह संज्ञा सार्थक ही है। जैन काव्योमे उनका अनुभूतिपरक विवेचन है। प्रबन्ध काव्योंमे अधिक है फिर चाहे वे संस्कृत-प्राकृतके हों अथवा अपभ्रंश और हिन्दीके । वहाँ तीर्थकरके प्रत्येक कल्याणकसे सम्बन्धित एक-एक सर्ग है, किन्तु कवियोंका मन गर्भ और जन्म-कल्याणकोंमें ही अधिक रमा है। भूधरदासके पार्श्व-पुराणमे इन दोका सरस वर्णन है। कविकी सबसे बडी सामर्थ्य है चित्रांकन। हिन्दीके महाकवियोंने रुचिकवासिनी देवियोंके द्वारा मांकी सेवा, सद्यःजात बाल तीर्थंकरका पाण्डुकशिलापर स्नान, इन्द्रका ताण्डव नृत्य और 'आनन्द' नाटक आदि दृश्योंको सफलतापूर्वक अंकित किया है। उनमें प्राकृतिक छटाका समन्वय होनेसे सौन्दर्य और भी बढ़ गया है।
प्रबन्ध काव्योंमे यथाप्रसंग मुक्तक स्तुतियोंको भी रचना की जाती है। उनमे तत्-तत् कल्याणकको लेकर तीर्थकरके प्रति अपना भक्ति-भाव प्रकट करना ही कविका उद्देश्य होता है । अपेक्षाकृत हिन्दीके प्रबन्ध काव्योमे ऐसी स्तुतियोंकी अधिकता है। हिन्दीके कवियोंने तो मुक्तक रूपसे भी पंचकल्याणक-स्तुतियोंका निर्माण किया है। संस्कृत-प्राकृतमे उनका नितान्त अभाव है। यह हिन्दी
कवियोंकी अपनी निजी विशेषता है । पाण्डे रूपचन्दको 'पंचमंगल स्तुति' आज भी -जैन-मन्दिरोंमें प्रतिदिन पढ़ी जाती है। जगरामके 'लघुपंचमंगल'की एक हस्तलिखित प्रति मुझे बड़ौतके दिगम्बर जैन-मन्दिरके शास्त्रभण्डारमें मिली है। पाण्डे रूपचन्दने प्रसिद्ध 'पंचमंगलस्तुति' के अतिरिक्त एक 'लघुपंचमंगल'का भी