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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कुछ नहीं देते, किन्तु उनकी प्रेरणा सब कुछ देती है। उससे भक्तमें ऐसी सामर्थ्यका जन्म होता है, जिससे वह स्वतः सब कुछ प्राप्त कर सकता है। इसे ही प्रेरणाजन्य कर्तृत्व कहते हैं। इसमें भक्त 'देव-दैव पुकारा' तक ही सीमित नही रहती, अपितु अभीष्ट प्राप्त करनेके लिए कर्मक्षेत्रमे उतरती है । भक्ति और कर्मका ऐसा समन्वय कहां देखनेको मिलता है। इसमे जैन भक्त न तो भक्तिके नितान्त परावलम्बनसे आलसी बन पाता है और न कर्मकी शुष्कतासे बेचैन होता है। जिनेन्द्रका सौन्दर्य प्रेरणाका अक्षय पुंज है । उसे लेकर कवियोंकी आनन्दानुभूतियां भी उभरती रही है। स्वयम्भू स्तोत्र' में आचार्य समन्तभद्रने लिखा है, "न पूजार्थस्स्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताम्जनेभ्यः ॥" मध्यकालीन हिन्दीके जैन काव्योमें ऐसी अनेकानेक उक्तियां है। धानतरायने जिनेन्द्रके प्रेरणाजन्य कर्तृत्वको एक उपालम्भके द्वारा प्रकट किया है । "तुम प्रभु कहियत दीनदयाल। आपन जाय मुकति मैं बैठे, हम जु रुकत जगजाल । तुमरो नाम जपें हम नीके, मन बच तीनौं काल ॥ तुम तो हमको कडू देत नहिं, हमरो कौन हवाल । बुरे-मले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल ॥ और कछू नहिं यह चाहत हैं, राग-दोष कौं टाल । हम सों चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विशाल ॥ धानत एक बार प्रभु जग तें, हमकों लेहु निकाल ।" आधुनिक हिन्दीके कवियोंका मन भी आराध्यके प्रेरणाजन्य सौन्दर्य में ही अधिक रमा है। 'प्रियप्रवास'को राधाने पवनको दूती बनाकर कृष्णके पास भेजा। दूतीने पूछा कि वहां तो सब काले ही काले होंगे, मैं कृष्णको कैसे पहचानूंगी ? राधाने कहा, "बैठे होंगे जिस थक वहाँ भग्यता भूरि होगी। सारे प्राणी वदन लखते प्यारके साथ होंगे। पाते होंगे परमनिधियाँ लूटते रत्न होंगे। होती होंगी हृदयतलकी क्यारियाँ पुष्पिता-सी । देते होंगे प्रथित गुण वे देख सदृष्टि द्वारा । लोहाको छू कलित करसे स्वर्ण होंगे बनाते ॥"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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