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________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ 'श्रीपूज्यबाहणगीतम्', साधुकीतिका 'जिनचन्द्रसूरिगीतम्' तथा जोधराजका 'सुगुरुशतक' अनुरागात्मक भक्तिके उत्तम दृष्टान्त है । हिन्दीके सभी कवियोंने स्वीकार किया है कि गुरुके सामर्थ्यवान् होने मात्रसे कुछ नहीं होता। शिष्यमें योग्यता, ग्रहण करनेकी उपादान शक्ति होनी ही चाहिए। उपादान शक्तिके अभावमें गुरु कितना ही समझाये शिष्य समझता नहीं । जैन कवियोंने अपने अनेक पदोमें इस भावको सरसताके साथ प्रकट किया है। किन्तु गुरु अत्यधिक उदार होता है। शिष्यमे ग्रहण करनेकी शक्ति हो या न हो, वह गुरुके आशीर्वादका पात्र तो बनता ही है । बनारसीदासने 'नाटक-समयसार में गुरुको मेघके समान कहा है । गुरुमें-से मेघकी ही भांति 'बानीरूपी' अखंडित धार निकलती है और उससे सब जीवोंका हित होता है । "ज्यों बरषे बरषा समै, मेघ अखंडित धार । त्यों सदगुरु बानी खिर, जगत जीव हितकार।" ब्रह्मकी प्रेरणा प्रत्येक भक्त अपने भगवान्से याचनाएँ करता है। जैन भक्तने भी की है। उसने कहीं पुत्र, कहीं धन और कहीं मोक्ष मांगा। उसका मांगना कभी व्यर्थ गया हो, ऐसा सुननेमें नही,आया। वीतरागी प्रभुने अपने भक्तकी सभी मनोकामनाओंको पूरा किया, फिर वे भौतिक हो या आध्यात्मिक । किन्तु प्रश्न तो यह है कि जो भगवान् संसारसे मुक्त हो चुका, उसका संसारसे क्या सम्बन्ध ? जैन सिद्धान्त जिनेन्द्रमे कर्तृत्व नहीं मानता और बिना कर्तृत्वके वह भक्तकी इच्छाओंको पूरा भी नहीं कर सकता। फिर जैन भक्त किस सहारेसे टिकता है ? उसके टिकनेका अवलम्ब है जिनेन्द्रकी प्रेरणा। जिनेन्द्र कुछ नहीं देते; किन्तु उनके दर्शन और पूजा-उपासनासे भक्तमें पुण्यप्रकृतियोंका जन्म होता है। ये प्रकृतियाँ चक्रवर्तीकी विभूति देती हैं और तीर्थकरका पद भी। अर्थात् उनमें क्षणिक और स्थायी दोनों ही प्रकारका आनन्द देनेको सामर्थ्य है । सारांश यह कि जिनेन्द्र १. रल्हकी 'जिनदत्त चौपई, जैन मन्दिर पाटौदी. जयपुरके गुटका नं० २०० में मौजूद है। इसमें ५५३ पद्य है । जोधराजका सुगुरुशतक भी इसी मन्दिरके गुटका नं० २३६ में अंकित है। अवशिष्ट रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है। २. पुण्यप्रकृतियॉ अन्य मागासे भी जन्म ले सकती है, किन्तु भक्तिमार्ग आसान, सीधा और सरस है, जनसाधारणके मनको रुचता है। ज्ञान प्रधान जैन धर्ममें उसका विधान बहुत बड़े आश्वासनकी बात है।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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