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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि मध्यकालीन हिन्दीके जैन काव्योंमे रहस्यवादी गीत और पद बिखरे हुए हैं। उनमें 'आराधना प्रतिबोधसार' - सकलकोत्ति, 'सम्माधि' - चरित्रसेन, 'तत्त्वसारदहा'-शुभचन्द्र, 'चेतनगीत' -जिनदास, 'अनित्यपंचाशत' - त्रिभुवनचन्द्र, 'सुन्दरसतसई सुन्दरदास, 'खटोलनागीत' - पाण्डे रूपचन्द, 'अध्यात्मगीत' - बनारसीदास, 'मनराम विलास' - मनराम, 'बहत्तरी' - आनन्दधन, 'हितोपदेशबीवनी' - हेमराज, 'आगम विलास' - जगतराम, 'चेतनबत्तीसी' - लक्ष्मीबल्लभ, 'अक्षरबावनी' - बिहारीदास, 'चेतन गीत' - किशनसिंह और 'चेतन सुमतिसज्झाय' - भवानीदास प्रसिद्ध रचनाएं है। इनमे आत्म-ब्रह्मके प्रेमकी अभिव्यक्ति रूपकोके द्वारा की गयी है। रूपक सरस है, ऐसी सरसता संस्कृतप्राकृतके जैन कवियोंमें नहीं पायी जाती ।
सतगुरु ___ जैन काव्योंमे सतगुरुका महत्त्वपूर्ण स्थान है। वहां सतगुरु और ब्रह्ममें भेद नहीं स्वीकार किया गया है । उन्होंने अर्हन्त और सिद्ध को भी 'सतगुरु' की संज्ञासे अभिहित किया है । कबीरका गुरु ब्रह्मसे पृथक है । गुरुके द्वारा ही गोविन्द मिलता है, अतः कबीरने गुरुको ब्रह्मसे बड़ा कहा है । गुरुके प्रति कबीरका यह दृष्टिकोण स्वार्थजन्य अधिक लगता है, भक्तिपरक कम। दूसरी ओर जो भक्त ब्रह्मको भी 'गुरु' कहकर ही पुकारता है, उसकी गुरु-भक्तिमें सन्देह नही किया जा सकता। जैन कवि गुरु-भक्त थे। उन्होंने पंचपरमेष्ठीको 'पंचगुरु' कहा है । पचपरमेष्ठीमें अर्हन्त-सिद्ध शामिल है, आचार्य-उपाध्याय तथा साधु भी। साधु यदि सम्यक्त्वी है, तो गुरु-पदका अधिकारी है। गुरु वही है, जो सम्यक् पथका निर्देशन करे । सम्यक् पथका अर्थ है मोक्ष-मार्ग । उसे वही बता सकता है, जो उसपर चल चुका हो। सच्चा साधु उसपर चलता है और उसके अंश-अंशसे परिचित रहता है । हिन्दीके जैन कवियोंने 'गुरु' को मोक्ष-मार्गका प्रकाशक
कबीर ने 'गुरु' की शक्तिकी बात तो बहुत की, किन्तु उसके प्रति शिष्यको अनुरागात्मक श्रद्धाका तो जैसे वहां अभाव ही है। उधर जैन काव्योंको गुरुभक्तिमें अनुरागको पर्याप्त स्थान मिला। जैन शिष्यने गुरुके मिलन और विरह दोनोंके ही गीत गाये । गुरुके मिलनमे शिष्यको समूची प्रकृति लहलहाती हुई दिखाई दी और विरहमें उसने समूचे विश्वको उदासीन देखा । रल्हकी 'जिनदत्त चौपई', उपाध्याय जयसागरको 'जिनकुशलसूरिचौपई', कुशललाभका