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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
त्रेपन-क्रिया
इसकी प्रति आमेरशास्त्रभण्डारमे मौजूद है। इसकी रचना कात्तिक बदी तीज मं० १६६५ मे हुई थी। रचनास्थल ग्वालियर है। उस समय वहाँ सम्राट जहांगीरका राज्य था।
इस काव्यमें जनोको त्रेपन धार्मिक क्रियाओंका उल्लेख है। उनका उल्लेख उपास्य बुद्धिसे ही किया गया है, अन्यथा क्रियाओके कोरे विवरणमे गणितको शुष्कता अवश्य आ जाती । काव्यमै रूखेपनके दर्शन भी नही होते । प्रयम मंगलाचरणमें ही कविने स्वीकार किया है कि भगवान् जिनेन्द्रकी चर्चा करने-मात्रसे ही पाप तो तुरन्त ही पलायन कर जाते हैं, और करोडों विघ्न क्षण-मात्रमे नष्ट हो जाते है । भगवान् जिनेन्द्र के मुखसे उत्पन्न हुई सरस्वती देवीका स्मरण करनेसे काव्यके निर्माणमे आशातीत सफलता मिलती है। तीनो लोकके निवासी उस देवीकी वन्दना करनेमे अ
"प्रथम परम मंगल जिन चर्चनु, दुरित तुरित तजि मजि हो । कोटि विधन नासन अरिनंदन, लोक सिखरि सुख राजै हो । सुमिरि सरस्वति श्री जिन उद्भव, सिद्ध कवित सुम बानी हो।
गन गन्धर्व जत्थ मुनि इन्द्रनि, तीनि भुवन जन मानी हो ॥" कृपण जगावनहार ___ इसकी एक प्रति अलीगंज जिला एटाके शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्रमण्डारमे है, दूसरी दिल्लीके पंचायती मन्दिरमे और तीसरी नहरोली, आगराके जैन साधु श्री सुखचन्दजीके पास 'काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका के खोजकर्ताने देखी थी। इसके कथानकमें सरसता है और भाषामें रमणीयता।
इस काव्यमें कृपणकी कथाके साथ-साथ भक्ति-रस पुष्ट हुआ है। क्या मैं क्षयंकरो और लोभदत्त दोनों ही कृपण हैं। उनकी दुर्दशाका कारण जिनेन्द्रकी भक्ति से विमुख हो जाना ही है । क्षयंकरी अपने पूर्व भवमें धवलसेठकी पत्नी मल्लि थी। एक आष्टाह्निक पर्वोत्सवमें उसने कोई उत्साह नहीं दिखाया, अपितु पूजनकी सामग्रीमें सड़ा-गला माल जुटा दिया और मुनियोंके मलिन शरीरको देखकर घृणा की, अतः अगले भवमें वह कोढ़िन हुई और नारकीय दुःख भोगने पड़े। अन्तमे भगवान् जिनेन्द्रको भक्ति करने और साधुओंकी सेवासे ही वह स्वर्गमे देव हुई। ____ कृपण सेठ लोभदत्तकी दो पलियां कमला और लच्छा जिनेन्द्रकी भक्त थीं। एक बार सेठको अनुपस्थितिमें दोनोंने जैन मुनियोंको श्रद्धापूर्वक आहार दिया,
१. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका पन्द्रहवाँ त्रैवार्षिक विवरण ।