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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
अतः उनको आकाशगामिनी और बन्धमोचिनी विद्याएँ सिद्ध हो गयीं। सेठ जब उनको किवाड़ोमे बन्द करके चला जाता था तो वे इन विद्याओंके बलपर सहस्रकूट चैत्यालयकी बन्दना करने जाती थी । सहस्रकूट चैत्यालय के समीप रत्न तो बिखरे ही रहते है | एक बार वे पड़ोसिनको ले गयीं तो वह बहुत-से रत्न समेट लायो । सेठको उसीसे वहाँके रत्नोको वात विदित हुई, और एक दिन वह विमानकी खालमे बैठ गया । किन्तु संयोगवशात् विमानका वह भाग फट गया और सेठकी मृत्यु हो गयी । दोनो सेठानियोको दुःख तो हुआ किन्तु सन्तोषपूर्वक जिनेन्द्रपूजा और मुनियोंको दान देनेमे मन लगाया, अतः वे इहजीवनलीला समाप्त कर स्वर्गमे देव हुई ।
इस प्रकार 'कृपण जगावन कथा' मे जिनेन्द्रकी भक्ति ही प्रमुख है। इसी कथामे एक जैन आचार्यने राजा वमुपतिको जिनेन्द्रको मृत्ति-पूजाकी उपयोगिता बतलायी है । उन्होंने कहा कि प्रतिमा-पूजन पुण्यका निमित्त है, उससे आत्मा ज्ञानरूपमे परिणमित होती है । प्रतिमा दर्शनसे कषाय गल जाती है ।
"प्रतिमा कारणु पुण्य निमित्त, बिनु कारण कारज नहिं मित्त । प्रतिमा रूप परिणनै श्रपु, दोषादिक नहिं व्यापै पापु । क्रोध लोभ माया बिनु मान, प्रतिमा कारण परिणवै ज्ञान । पूजा करत होइ यह माड, दर्शन पाए गलै कषाउ || "
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धर्मस्वरूप
इसकी प्रति आमेरशास्त्र भण्डारमे इसकी रचना भाद्रपद शुक्ला तृतीया सं० स्वरूप वर्णन है ।
कविने प्रारम्भके मंगलाचरणमें सरस्वती और गणपतिके चरणोंकी वन्दना की है, किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि ग्रन्थका सम्बन्ध जैन धर्मसे नही है । क्योकि "कीजे वांणी श्री जिणवर सार, संसार संग उतरे पार" और " मन्दिर वेदी दीरघ होइ, जीणवर धरम जपै सो होई" स्पष्ट रूपसे जैन धर्मकी महिमाको बताने में समर्थ है। एक नहीं अनेक जैन कवियोने सरस्वती और गणपतिकी वन्दना से अपने ग्रन्थोका प्रारम्भ किया है । सरस्वतीको भक्ति तो जैन- परम्परामें बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही है, किन्तु गणपतिको भो विद्याके अधिष्ठातृ देवके रूपमे हिन्दीके जैन कवियोंने स्वीकार किया था ।
मौजूद है । उसमें पद्य संख्या ९२ है । १७२० मे हुई थी । उसमे जैन धर्मका
१. कृपण जगावन कथा, अलीगंजवाली प्रति ।
२. प्रथम सुमरौ सारदा, गणपति लागू पाय । गुण गाऊँ श्री जिण तणा, सुनौ भव्य मन लाय ॥