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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
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" जो जिण सासण मासियउ सो भइ कहियउ सार । जो पालेसइ भाउ करि सो तरि पावइ पारु ॥" कुछ विद्वानोने अपभ्रंश और देशभाषाको एक मान लिया, परिणामतः उन्होने अपभ्रंश कृतियोंको भी हिन्दीमे ही परिगणित किया है । महापण्डित राहुल सांकृत्यायनको हिन्दी काव्यधारा इसका निदर्शन है । यह सच है कि 'कथासरित्सागरके' आधारपर 'अपभ्रंश' और 'देशी' समानार्थक शब्द थे, किन्तु यह वैसा ही था जैसा कि पतञ्जलिके महाभाष्य में प्राकृत और अपभ्रंशको समानार्थक माना गया है । भाषाविज्ञानके अध्येता जानते है कि भाषाओका स्वभाव विकसनशील है । मुखसौकर्य के लिए भाषाएँ निरन्तर समासप्रधानता से व्यासपरकताकी ओर जाती रही है । प्राकृतसे अपभ्रंश और अपभ्रंशसे देशीभाषा अधिकाधिक व्यासप्रधान होती गयी है। यह ही दोनोंमें अन्तर है । अतः दोनोंको एक नहीं माना जा सकता । स्वयम्भू ( ९ वी शताब्दी वि० सं० ) का 'पउमचरिउ' नितान्त अपभ्रंशका ग्रन्थ है । उसमें कही देशी भाषाका एक भी शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है । कवि पुष्पदन्त ( वि० सं० १०२९ ) ने 'णायकुमारचरिउ मे अपनी सरस्वतीको निःशेष देश भाषाओंका बोलनेवाला भले ही कहा हो, किन्तु वह केवल विविध अपभ्रंश भाषाओके बोलनेमे ही निपुण है । पुष्पदन्त अपभ्रंशको ही देशभाषा कहते थे ।
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पुष्पदन्तके चालीस वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्दका 'कथाकोष' देशभाषा में लिखा गया है । इस ग्रन्थमे ५३ सन्धियों हैं । प्रत्येक सन्धिमे एक कथा कही गयी है । कथाएँ भक्ति से सम्बन्धित है । ग्रन्थकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि श्रीचन्दके गुरु वीरचन्द थे, जो कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामे हुए है । एक उदाहरण इस प्रकार है,
"लहेवि सिद्धिं च समाहिकारणं समत्थ संसार डुहोह वारणं । पहु जए जं सरसं निरंतरं ॥ सुहं सात फलजं अणुत्तरं तेणाण माउ वद्धिउ पयाउ । सम्मत्त णाण तव चरण थाण ॥"
१. कथासरित्सागर, ११६, पृ० १४८ ।
• २. पातञ्जल महाभाष्य, ११, पृ० १ ।
३. शायकुमारचरिउ, डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, कारंजा, १९३३ ई०,
पहली
सन्धि, पृ० ३ |