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तुलनात्मक विवेचन
"अद्भुत राम नाम के अंक ।
भक्ति ज्ञान के पंथ सूर ये, प्रेम निरन्तर माखि ॥”
रायका भी कथन है कि भगवान्का नाम मिथ्या-जालको काटकर ज्ञानका प्रकाश करता है,
"जाको नाम ज्ञान परकासै,
नाशै मिथ्या जाल । २"
भगवतीदास 'भैया' ने भो पंच परमेष्ठीके नामकी महिमा बताते हुए लिखा है,
" तिहुं लोक तारन को, आत्मा सुधारन को । ज्ञान विस्तारन को, यहै नमस्कार है ।
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जैन और वैष्णव कवियोंमे अन्तर भी है। जैनोंके मध्य भगवान्का नाम कीर्तनके रूपमे कभी प्रतिष्ठित नहीं रहा । वैष्णवोंमें 'कीर्तन' भक्तिका प्रमुख अंग माना जाता है । इसके अतिरिक्त सूर और तुलसीने रामके नामको साघन और साध्य दोनों ही रूपोंमें स्वीकार किया है । तुलसीको रामसे भी पूर्व रामका नाम प्रिय है, अतः वह साध्य तो है ही । जैन भक्त कवियोंने भगवान्के नामको केवल साधन माना है ।
भगवान्का लोकरंजनकारी रूप
भगवान्का रूप लोकरंजनकारी तभी हो सकता है, जब उसमें सौन्दर्यके साथ-साथ शक्ति और शीलका भी समन्वय हो । भगवान्के इसी समन्वित रूपसे जन-मन आकर्षित होता है । तुलसीने 'रामचरितमानस' में ऐसे ही रामको अंकित किया है | जिनेन्द्र में रामके समान हो सौन्दर्य और शीलकी स्थापना हुई है, किन्तु शक्ति सम्पन्नता मे अन्तर है । रामका शक्ति सोन्दर्य असुर तथा राक्षसोंके संहारमें परिलक्षित हुआ है, जब कि जिनेन्द्रका अष्टकर्मोंके विदलनमे । दुष्टोंको जीता दोनोंने है, एकने बाहुबलसे और दूसरेने अध्यात्मशक्तिसे । एकने असत्के प्रतीक मानवको समाप्त किया है, और दूसरेने उसे सत्में बदला है । तुलसीके राम रावणको
१. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ६०वाँ पद, पृ० २६ ।
२. यानतपदसंग्रह, ६६वाँ पद, पृ० २८ ।
३ भगवतीदास भैया, सुबुद्धि चौबीसी, पूवॉ पद्य, ब्रह्मविलास, पृ० १५८ ।
४. 'प्रिय राम नाम तें जाहि न रामो '
विनयपत्रिका, उत्तरार्द्ध, २२८व पद, पृ० ४४७ ।