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________________ ८६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसमे ११५ कडवक और २११ पद्य है। ___ इस काव्यमे मेघमालावत करनेको विधियोंका सांगोपांग वर्णन हुआ है। कथामे निबद्ध होनेके कारण, विधियोके उल्लेखमे रूक्षता नही आने पायी है। यत्र-तत्र भगवान् जिनेन्द्र और पंचगुरुओको भक्तिकी बात भी कही गयी है । पंचेन्द्रिय वेल ___ इसकी रचना वि० सं० १५८५ मे, कात्तिक सुदी १३ के दिन हुई थी। इसमे पाँच इन्द्रियोकी वासनाका चित्र उपस्थित किया गया है। यद्यपि इसका मूल स्वर उपदेश है, किन्तु शैली इतनी रम्य है कि पाठक रस-विभोर हो जाता है। इस काव्यमें केवल छह पद्य है। कविने प्रत्येक इन्द्रियकी हानि दिखलानेके लिए, प्रायः दृष्टान्तोंका सहारा लिया है। इससे काव्यको रमणीयता और भी बढ़ गयी है। घ्राण इन्द्रियका सम्बन्ध गन्धसे है, और गन्धलोलुपी सदैव हानि उठाता है, कविने यह भ्रमरके दृष्टान्तसे पुष्ट किया है । एक भ्रमर कमलमें इसलिए बन्द हो गया कि वह रातभर उसके रसको अधाकर ले सके। किन्तु सूर्योदय के पूर्व ही एक हाथी आया और कमलको नालसहित उखाड़कर पैरोसे कुचल दिया, जिससे भ्रमरको भी प्राण त्यागने पड़े। कविका कथन है कि घ्राण इन्द्रियको वश्यता स्वीकार करने वालोका यही हाल होता है । १. इसकी एक हस्तलिखित प्रति, भामेरशास्त्रभण्डार, जयपुरमें मौजूद है। यह वि० सं० १६८८ में लिखी गयी थी। एक प्रति नया मन्दिर देहलीमें भी है । २. संवत् पन्द्रासैर पिच्यास्यो, तेरसि सुदि कातिग मासे । इ पांच इंद्री वसि राखै, सो हरत परत सुख चाखें । कवि ठकुरसी, पचेन्द्रिय बेल, आमेरशास्त्रभण्डारकी प्रति । ३. "कमल पयट्ठो भमर दिनि घाण गन्ध रस रूढ । रमणि पडीतो सवुड्यो नीसरि सक्यो न मूढ । सो नीसरि सक्यौ न मूढौ अतिघ्राण गंधरस रूढौ । मनचितै रयणि गवाई, रसलेस्सु आजि अघाई। जब ऊगै लौ रवि विमलौ, सरवर विगसै लो कमलो। तब नीसरिस्यौ यह छोड़े रसुलेस्या आइ बहोडै । चिंतति तितै गजु इकु आयौ दिनकरु उगिया न पायो। जलु पैठि सरोवर पोयौ नीसरत कमल पाखडी लीयो । गहि सुंडि पावतलि चांप्यो अलि मार्यो थरहरि कंप्यौ । यह गंध विष वसि हूओ अलि अहल अखूटी मूवो। अलि मरण करण दिठि दीजै अति गंधुलीभु नहि कोजै ॥३॥" पंचेन्द्रिय बेल, पं० परमानन्द शास्त्री, कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १, पृष्ठ १३ ॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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