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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
"कृपणु कहै रे मीत, मझु घरि नारि सतावै। जात चालि धणु खरचि, कहै जो मोहि न मावै ॥ तिहि कारण दुब्बलौ, रयण दिन भूख न लागै। मीत मरणु आइयो, गुज्यु भाखौ तू प्रागै ।। ता कृपण कहै रे कृपण सुणि, मीत न कर मनमाहि दुखु ।
पीहरि पठाइ दै पापिणी, ज्यों को दिण तू होइ सुख्खु ॥" जब संघ यात्रासे लौटा तो कृपणने देखा कि कई लोग असीम धन कमाकर लाये है । उसे अपने न जानेपर दुःख हुआ। इसी दुःखसे प्रपीड़ित होता हुआ वह मरण-शय्यापर लेट गया। उसने लक्ष्मीसे प्रार्थना की कि मैने तुम्हारी जीवनभर एकनिष्ठतासे सेवा की, अब तुम मेरे साथ चलो। लक्ष्मीने उत्तर दिया, तूने न तो देवमन्दिरोमे जाकर भगवान्के दर्शन-पूजनादिमे ध्यान लगाया, और न तीर्थ यात्रा, प्रतिष्ठा तथा चतुर्विध संघादिके पोषणमे धन व्यय किया, अतः मैं तेरे साथ नही जा सकती।
"लच्छि कहै रे कृपण झूठ हौं कदे न बोलों, जु को चलण दुइ देइ गैल लागी तासु चालों। प्रथम चलण मुझु एहु देव देहरै उविज्जैं। दूजे जात पति? दाणु चउसंघहिं दिज्जै, ये चकण दुवे ते भंजिया ताहिविहूणी क्यौं चलौं।
झखमारि जाह तुं हो रही वहुटि न संगि थारे चलौं ।" लक्ष्मीके इस उत्तरसे अत्यधिक दुःखी होता हुआ कृपण मर गया। पत्नीने उसके धनको पुण्य-कृत्योंमे व्यय किया। ___इस भांति इस काव्यका मुख्य अंश, कृपणकी कृपणतासे सम्बन्धित होकर भी, भक्तिसे युक्त है । जिनेन्द्रकी भक्ति, इस लोकमे तो लक्ष्मी-सम्पत्ति प्रदान करती ही है, परलोकमे भी पुण्य कर्मके उदयसे लक्ष्मी-चरम शोभा मिलती है, ऐसा इस काव्यका निष्कर्ष है। मेघमालाव्रतकथा __ कवि ठकुरसीने इस काव्यका निर्माण, चम्पावती नामकी नगरीमे, वणिक्पुत्र मल्लिदासके कहनेसे, वि० सं० १५८०, श्रावण सुदी छठके दिन किया था।
१. यह काव्य, अजमेरके भट्टारक हर्षकत्तिके शास्त्रभण्डारके एक गुटकेमें अंकित है। २. हाथु व साह महत्ति महंते, पहाचंद गुरु उयएसंते।
पणादह सइजि असीते अग्गल सावण मासि छठिखिय मंगल। मेघमालाव्रतकथा,अन्तिम प्रशस्ति,अने कान्त, वर्ष१४, किरण १, पृ०१३, पाद-टिप्पणी ।