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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
सकल विकार रहित बिनु अंबर, सुंदर सुभ करनी । निराभरन मासुर छबि सोहत, कोटि तरुन तरनी ॥ वसु रस रहित सांत रस राजत, खलि इहि साधुपनी । जाति बिरोधि जंतु जिहि देखत, तजत प्रकृति अपनी ॥ दरिनु दुरित हरै चिर संचितु, सुर-नर-फनि मुहनी । रूपचन्द कहा कहौं महिमा, त्रिभुवन मुकुट-मनी ॥ " गीत परमार्थी
यह काव्य भी आत्माको सम्बोधन करके ही लिखा गया है । सद्गुरु अमृतमय तथा हितकारी वचनोसे चेतनको समझाता है, किन्तु वह चेनता नहीं । जब चेतन ज्ञानरूप हैं, और समझानेवाला कोई साधारण व्यक्ति नहीं, अपितु स्वयं सद्गुरु हैं, तब तो उसे समझना ही चाहिए। किन्तु वह नही समझता यह ही आश्चर्यकी बात है,
" चेतन, अचरज भारी, यह मेरे जिय आवै । अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै ।
सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै चित है, अरु तुमहू हौ ज्ञानी । तबहू तुमहिं न क्यौं हू आवै, चेतन तत्र कहानी ॥ "
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इसके विपरीत यह आत्मा विषयोमे ऐसी चतुर है कि कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता । और यह चतुरता बिना किसी गुरुके प्राप्त हुई है । कविका तात्पर्य है कि सांसारिक विषयो में ऐसा तीव्र आकर्षण होता है कि यह चेतन उसमें स्वतः लिप्त हो जाता है ।
"विषयनि चतुराई कहिए, को सरि करै तुम्हारी ।
बिन गुरु फुरन कुविद्या कैसें, चेतन अचरज भारी ॥"
निर्गुणवादी सन्तोंकी भांति कविने कहा है कि यह चेतन अपनी वस्नुको भूलकर इधर-उधर भटक रहा है। वह चावल के कणोंको छोड़कर छिलका ग्रहण कर रहा है। उसकी वस्तु उसके ही अन्तरमें विराजमान है। यदि चतुर चेतन स्वानुभवकी बुद्धिसे उसे देखे तो देख सकता है,
१. इसके छह गीत, परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके दस गीत, बृइज्जिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालाल बाकलीवाल सम्पादित, मदनगंज, किशनगढ़, पृ० ५६२ - ५६६, सम्राट् संस्करण में छप चुके है।