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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
"अपनी वस्तु सँभारि विसरी, कहा इत उत मटक ही । बहिरमुख भूल्यों मया कत छोडि कन तुष झटक ही ॥ निज वस्तु अंतरगत विराजित, चिदानंद निकेतना । स्वानुभव बुद्धि प्रर्जुजि देखहि चेति चतुरमति चेतना ॥" मंगल गीत प्रबन्ध'
इसे 'पंचमंगल' भी कहते है । इसमे तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्षको लेकर भक्तिपूर्ण पदोकी रचना हुई है । यह काव्य बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ । उसमे कुछ ऐसा सौन्दर्य है जो आज भी प्रत्येकको आकर्षित करता है ।
भगवान्को गर्भमे आया हुआ जानकर, इन्द्रने कुबेरको भेजा, और उसने भगवान् की नगरीको कनक और रत्नोंसे जड़कर अद्वितीय बना दिया । भगवान्के पिताके घरमे छह माह पूर्वसे ही रत्नोंकी वर्षा आरम्भ हो गयी । रुचिकवासिनी देवियाँ प्रसन्न हो-होकर जननीकी सेवा करने लगी,
"जाके गरम कल्याणक धनपति आइयो । अवधि ज्ञान परवान सु इन्द्र पठाइयो | रचि नव बारह जोजन नयरि सुहावनी ॥ कनक रयणि मणि मंडित मंदिर अति बनी ॥
ति बनी पौरि पारि परिखा सुवन उपवन सोहये ।
नर नारि सुन्दर चतुर सुख भे देख जन मन मोहये ॥१॥"
भगवान्का जन्मोत्सव मनानेके लिए इन्द्र परिवारसहित स्वर्गसे चल पड़ा । मार्गमें अप्सराओंके नृत्य हुए । उनकी कमर में बँधी कनककी किंकिणियोसे मधुर स्वर निकलता था | घण्टोसे घन घनकी ध्वनि आ रही थी । ध्वजा पताकाएँ फहरा रही थीं । उन्हें देखकर तीनों लोक मोह गये,
“दलदलहिं अपर नहिं नवरस हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनक किंकिणि वर विचित्र सु अमर मंडप सोहये । घन घंट चंवर धुजा पताका देखि त्रिभुवन मोहये ॥ ६ ॥"
केवलज्ञानके उपरान्त भगवान्के समवशरणको रचना हुई। उसमे भगवान्की सेवा करनेवाले, नारी और नर, परमानन्दका अनुभव करते | मारुत देव भगवान्के चारों ओर योजन प्रमाण पृथ्वीको झाड़कर शुद्ध बना देते है । मेघ
१. यह अनेक बार छप चुका है। अब ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १६५७ ई० में, पृ० ६४ - १०४ पर प्रकाशित हुआ है।