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________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि हो चुका है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जैनसिद्धान्तभवन भारामे भी मौजूद है। ___ यह काव्य अध्यात्म तत्वके मनोरम पद्योंसे युक्त है। यदि आत्मासे कर्ममलीमस दूर हो जायें, तो वह ही परमात्मा है। कबोरने भी माया-रचित जीवकी आत्माको ब्रह्म कहा है। किन्तु वह आत्मा ऐसा सामर्थ्यवान् होते हुए भी, कर्मोके कारण समारमै भ्रमण करता है। उमीको सम्बोधन करते हुए कविने कहा है, "अपनो पद न विचार के, अहो जगत के राय । भववन छायक हो रहे, शिवपुर सुधि विसराय ॥ मववन भरमत ही तुम्हें, बीतो काल अनादि । अब किन धरहिं संवारई, कत दुख देखत वादि ॥ परम अतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय । किंचित इन्द्रिय सुख लगे, विषयन रहे लुभाय ॥ विषयन सेवते मये, तृष्णा ते न बुझाय । ज्यों जल खारा पीवतें, बाढ़े तृषाधिकाय ॥" पाण्डे रूपचन्द दृष्टान्त देनेमे निपुण है। उनमे बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव समुचित रूपसे प्रतिष्ठित हुआ है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा - चेतनसे परिचय बिना जप-तप व्यर्थ है, ठीक वैसे ही, जैसे कणोंके बिना तुषको फटकनेसे कुछ हाथ नहीं आता । यदि चेतनसे परिचय नहीं तो व्रतोके धारण करनेसे क्या होता है। यह तो वैसे ही है जैसे धान्यसे रहित खेतकी बाड़ी बनाना बेकार है, "चेतन चित परिचय बिना, जप तप सबै निरस्थ । कन बिन तुस जिमि फटकतै, आवै कछ न हत्य॥ चेतन सौं परिचय नहीं, कहा भये व्रत धारि । सालि विहूनें खेत की, वृथा बनावत वारि।" यह काव्य एक प्राचीन गुटकेमे 'दोहरा शतक' के नामसे निबद्ध है। यह गुटका बनारसीदासके अनन्य मित्र कुंवरपालका लिखा हुआ है। इसमे भक्तिरससे युक्त एक सुन्दर पद्य दिया है, "प्रभु तेरी परम विचित्र मनोहर मूरति रूप बनी। अंग अंग की अनुपम सोमा, बरनि न सकत फनी ॥ १. जैन हितर्षी, भाग ६, अंक ५-६। २. यह गुटका श्री कुंवरपालने वि० सं० १६८४-१६८५ में लिखा था। यह गुटका पं० नाथूरामजी प्रेमीके पास श्री अगरचन्दजी नाहटाने मेजा था।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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