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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
शिक्षा प्राप्त करनेके लिए बनारम भेजा गया। वहां रहकर उन्होने व्याकरण, जैन दर्शन और जैन सिद्धान्तमे निपुणता प्राप्त की । उम समय बनारसमें अवश्य ही जैन - शिक्षाका प्रबन्ध होगा ।
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बनारस से लौटकर पाण्डे रूपचन्द दरियापुरमे आये । वहाँपर ही उनका परिवार रहने लगा था। वे आगरा भी गये थे, जैसा कि बनारसीदासजीके 'अर्ध- कथानक' से विदित है । वहाँ उन्होंने निहुना साहुके मन्दिर मे निवास किया था। इस मन्दिर मे भट्टारक या उनके शिष्य-प्रशिष्य हो ठहर सकते थे, अन्य नहीं । इसी आधारपर पं० नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि वे किसी भट्टारक के शिष्य थे । उनकी पाण्डे संज्ञा भी इसी अनुमानका समर्थन करती है, उस समय भट्टारकोंके शिष्य पाण्डे कहलाते थे ।
पाण्डे रूपचन्द विद्वान् थे और कवि भी । उन्होंने जैन ग्रन्थोमे विवेचित अध्यात्म पक्षको भली भाँति समझा था । उसी आधारपर वे बनारसीदास और उनके अध्यात्मी साथियोके उस भ्रमका उन्मूलन कर सके, जो 'समयसार' की राजमल्लीय टीकासे उत्पन्न हुआ था। दूसरी ओर उन्होंने हिन्दीमे गीति-रचना की, जो उत्कृष्ट कोटिका साहित्य मानी जाती है । उनके गीति काव्य इस प्रकार है, 'परमार्थी दोहाशतक', 'गीतपरमार्थी', 'मंगलगीत प्रबन्ध', 'नेमिनाथ रासा', 'खटोलना गीत' ।
'अर्ध कथानक' के अनुसार पाण्डे रूपचन्दजीका देहावसान वि० सं० १६९४मे हुआ था
परमार्थी दोहाशतक
यह काव्य बहुत पहले 'रूपचन्द शतक' नामसे 'जैन हितैषी' में प्रकाशित
१. अनायास इस ही समय नगर आगरे थान |
रूपचन्द पंडित गुनी आयो आगम जान || तिहुना साहु देहरा किया, तहां आय तिन डेरा लिया ।
सब अध्यात्मोकियो विचार, ग्रन्थ पंचायो गोम्मटसार ॥
अर्धकथानक, बम्बई, अक्टूबर १६५७, पद्य ६३० - ६३१, पृ०७० ।
२ वही, प्रथम संस्करण, १६४२ ई०, परिशिष्ट ४, १०७८
३. वही, संशोधित संस्करण, पद्य ५६३, ५६४, ५६५, और ६३४, पृ० ६६ और ७० ।
४. फिरि तिस समै बरस द्वै बोच । रूपचंद को आई मोच ॥
सुनिसुनि रूपचंद के बैन । बानारसी भयो दिढ़ जैन || ६३५ ||
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