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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि संज्ञाएं होती हैं, जैसे एक ही जल वापो तड़ाग और कूपके नामसे, तथा एक ही पावक दीप, चिराग और मसाल आदि नामोंसे पुकारा जाता है। सन्त दादूदयालने एक ही मूलतत्त्वकी 'अलह' और 'राम' दो संज्ञाएँ की है । उन्होंने यहांतक लिखा है कि जो इनके मूलमे भी भेदको कल्पना करता है, वह झूठा है।
जैन सन्तोने निर्मल आत्मामे केन्द्रित हुए मनको ही सर्वोत्तम कहा है । उनकी दृष्टिमे यदि इस जीवको शुद्ध आत्माके दर्शन नहीं होते, तो उपवास, जप, तप, व्रत और दिगम्बर दशा भी व्यर्थ ही है । उन्होने उस ज्ञानको भी निःसार कहा है, जिसके द्वारा आत्मदर्शन नहीं हो पाता। आत्मज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, यदि वह नहीं तो अन्य सब ज्ञान निरर्थक है। इसी भावको लेकर बनारसीदासने लिखा है, "भेष में न ज्ञान नहिं ज्ञान गुरु-वर्तन में
जंत्र मंत्र तंत्र में न ज्ञान की कहानी है । अन्य में न ज्ञान नहीं ज्ञान कवि चातुरी में,
बातनि में ज्ञान नहीं, ज्ञान कहाँ बानी है ॥ ताते भेष गुरुता कवित्त ग्रन्थ मंत्र वात,
इन ते अतीत ज्ञान चेतना निशानी है। ज्ञान ही में ज्ञान नहीं, ज्ञान और और कहीं
____ जाके घट ज्ञान सो ही ज्ञान को निदानी है।" यशोविजयजी उपाध्यायने भी लिखा है कि संयम, तप, क्रिया आदि सब कुछ शुद्ध चेतनके दर्शनोके ही लिए किया जाता है, यदि उनसे दर्शन नहीं होता, तो वे सब मिथ्या है । दर्शन तो अन्तरचित्तके भीगे बिना नहीं होता। जबतक अन्तःको 'लौ' शुद्ध चेतनमे न होगी, ये ऊपरी क्रिया-काण्ड व्यर्थ ही है, १. बापी तड़ागरु कूप नदी सब है जल एक सौ देषो निहारी ॥ पावक एक प्रकाश बहू विवि दीप चिराक मसालहु वारी । सुन्दर ब्रह्म विलास अखंडित भेद की बुद्धि सु टारी॥
सुन्दर ग्रन्थावली, स्व. पं० हरनारायण शर्मा सम्पादित, भाग २, ६४६।४ । २. अलह कहौ भाव राम कहो, डाल तजौ सब मूल गहौ। अलह राम कहि कर्म दही, झूठे मारग कहा बहो ।
सन्त दादूदयाल, शबद, ४३वॉ पद्य, सन्तसुधासार, पृ० ४४५. ३. कवि बनारसीदास, नाटकसमयसार, स्व. पं० जयचन्दजी-द्वारा भाषा-टीका
कृत, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज देहली, सर्वविशुद्धि द्वार, ११२वों पद्य, पृ० ११३।