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जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य प्रसादसे में इस संसार-समुद्रसे तिर जाऊँ तथा फिर वापस न आऊँ।''
जब प्रद्युम्नको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, तो इन्द्रने स्तुति करते हुए कहा, "हे मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेवाले ! तुम्हारी जय हो । हे प्रद्युम्न ! तुम्हारी जय हो, तुमने संसार-जालको तोड़ डाला है।" और भी अनेक दृष्टान्त उपलब्ध हैं, जिनके आधारपर 'प्रद्युम्नचरित्र'को भक्ति-साहित्यकी एक महत्त्वपूर्ण कृति माना जाना चाहिए।
३. विनयप्रभ उपाध्याय (वि० सं० १४१२)
विनयप्रभ खरतरगच्छके जैन साधु थे। उनके गुरुका नाम दादा जिनकुशल सूरि था। जिनकुशलसूरिका स्वर्गवास वि० सं० १३८९ में हुआ, तदुपरान्त उनके पट्टपर विनयप्रभ ही अधिष्ठित हुए। विनयप्रभ वि० सं० १३८२ मे जैन साधु हो चुके थे। यह मान्यता ठीक नहीं लगती कि वे वि० सं० १३९४ और १४१२ के बीच कभी, उपाध्याय पदसे विभूषित किये गये; क्योकि एक प्राचीन पट्टावलीके भाधारपर यह प्रमाणित है कि दादा जिनकुशलसूरिने अपने जीवनकालमे हो
१. देवि पयाहिण करिउ बहूत, फुणि माधव आरंभिउ थुति ।
जय कंदर्प खयंकर देव, तइ सुर असुर कराए सेव ॥ जह कम्मट्ठ दृढ खिउकरण, जय महु जनम-जनम जिनु सरणु। तुम पसाइ हउ दूतरु तिरउ, भव संसारि नवाहुडि परउ ।।
वही, पद्य-६६६,६६७ । २. थुणह सुरेस्वर वाणी पवर, जय जय मोहतिमिर हर सूर ।
जय कन्द्रप हउ मति नासु, जाइ तोडिवि पालिउ भवपासु ॥
वही, पद्य ६६२। ३. मोहनलाल दुलीचंद देसाई, जैनगुर्जर कविश्रो, प्रथम भाग, पृ० १६, पादटिप्पणी। ४. Ancient Jaina Hymns, Edited by Dr. Charlotte Krause,
Scindia Oriental Series No 2, Ujjain, 1952, Renarks on the texts, pp. 10.