________________
३६
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि आगमनके संकेत भी मिल गये है, किन्तु पुत्र नही आया। रुक्मिणो बेचैन है । सच यह है कि पुत्र आ चुका है, पर रुक्मिणीको विदित नही हो पाया है। मांकी ममता-सिंचित भावनाओंको कविने चित्रवत् अंकित किया है,
"षण षण रूपिणि चढइ अवास, षण षण सो जोवइ चोपास । मोस्यो नारद काउ निरूत, आज तोहि घर आवइ पूत ॥ जे मुनि वयण कहे पमाण, ते सवई पूरे सहिनाण । ध्यारि आवते दीठे फले, अरुआचल दीठे पीयरे ॥ सूकी वापी भरी सुनीर, अपय जुगल भरि आये षीर । तउ रूपिणि मन विभउ भयउ, एते ब्रह्मचारि तहाँ गयउ॥ नमस्कार तब रूपिणि करइ, धरम विरधि खूडा उचरइ । करि आदरु सो विनउ करेइ, कणय सिघासणु वैसण देहु ॥ समाधान पूछई समुझइ, वह भूखउ-भूखउ बिललाई। सखी बूलाइ जणाइ सार, जैवण करहु म लावहु वार ॥ जीवण करण उठी तंखिणी, सुइरी मयण अग्नी थंभीणी।
ताजु न चुरइ चूल्हि धुंधाइ, वाह भूखउ-भूखउ चिललाइ ॥" इस महाकाव्यका मूलस्वर भक्तिमय है। स्थान-स्थानपर भक्तिके दृष्टान्त उपलब्ध होते है। एक बार प्रद्युम्न कैलास पर्वतपर जिन-चैत्यालयोकी वन्दना करने गये । उनको ज्योति रत्नोंके समान चमकती थी । प्रद्युम्नने उनकी अष्टद्रव्यसे पूजा की और वापस चले आये।
तीर्थकर नेमिनाथको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उनके समवसरणमें सुरेन्द्र, मुनीन्द्र, भवनवासी देव आये । श्रीकृष्ण तथा हलधर भी पहुंच गये। श्रीकृष्णने स्तुति आरम्भ की : "हे कामको जीतनेवाले, तुम्हारी जय हो। तुम्हारी सुर, असुर सेवा करते हैं । हे देव ! तुम्हारी जय हो। दुष्ट कर्मोको क्षय करनेवाले हे देव ! तुम्हारी जय हो । मेरे जन्म-जन्मके शरण, हे जिनेन्द्र ! तुम्हारी जय हो। तुम्हारे
१. वही, पद्य ३८४-३८६ । २. फिर चेताले वन्दे गयण, तिन्हि ज्योति दिपइ जिम्ब रयण ।
अट्ठविधि पूजउ न्हवणु कराइ, वाहुडि मयण द्वारिका जाइ । वही, पय ६६० ।