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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
समता और शान्ति-जैमी सुन्दर रमणियां तुम्हारी सेवामे खड़ी हुई हैं । एकसे एक अनुपम रूपवाली है । ऐसे मनोरम वातावरणको भूलकर और कहीं न जाइए। यह मेरी सहज प्रार्थना है।'
"कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल
आवो क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में । नैकहू विलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेती, कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी हैं टहल में ॥ एकनतें एक बनी सुन्दर सुरूप धनी, उपमा न जाय गनी वाम की चहल में। ऐसी बिधि पायं कहूँ भूलि और काज कीजे,
एतो कह्यो मान लीजे वीनती सहल में ॥" बहुत दिन बाहर भटकनेके बाद चेतन राजा आज घर आ रहा है । सुमतिके आनन्दका कोई ठिकाना नहीं है। वर्षोंको प्रतीक्षाके बाद पियके आगमनको सुनकर भला कौन प्रसन्न न होती होगी। सुमति आह्लादित होकर अपनी सखीसे कहती है । "हे सखो ! देखो आज चेतन घर आ रहा है। वह अनादि काल तक दूसरोके वंशमे होकर घूमता फिरा, अब उसने हमारी सुध ली है। अब तो वह भगवान् जिनकी आज्ञाको मानकर परमानन्दके गुणोंको गाता है। उसके जन्म-जन्मके पाप भी पलायन कर गये है । अब तो उसने ऐसी युक्ति रच ली है, जिससे उसे संसारमें फिर नही आना पड़ेगा। अब वह अपने मनभाये परम अखण्डित सुखका विलास करेगा।
पतिको देखते ही पत्नीके अन्दरसे परायेपनका भाव दूर हो जाता है । द्वैध हट जाता है और अद्वैत उत्पन्न हो जाता है। ऐसा ही एक भाव बनारसीदासने १. भैया भगबतीदास, ब्रह्मविलास, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, द्वितीयावृत्ति,
सन् १९२६ ई०, शत अष्टोत्तरी, ७२वाँ पद्य, पृष्ठ० १४ । २. देखो मेरी सखीये आज चेतन घर आवे।
काल अनादि फिरथो परवश हो, अब निज सुघहिं चितावै ।। जनम जनम के पाप किये जे, ते छिन माहिं बहावै । श्री जिन आज्ञा शिर पर धरतो, परमानन्द गुण गावे ।। देत जलांजुलि जगत फिरन को ऐसी जुगति बनावै । विलसै सुख निज परम अखण्डित, भैया सब मन भावे ॥ वहो, परमार्थ पदपंक्ति, १४ वाँ पद, पृष्ठ ११४ ।