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________________ १४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि भगवतीदासोका सही-सही लेखा-जोखा मिला पाना आसान नही है। आनन्दधनोंकी भी कमी नहीं थी। उनमे जैनमरमी आनन्दधन पहचानमे आ गये है, ऐसा विश्वास-सा होता है। उपाध्याय जयसागरपर लिखते समय, पहले पैराग्राफमे तीन जयसागरोंका उल्लेख किया, किन्तु लिखा केवल उपाध्यायजीपर ही, अवशिष्ट दोको बचाकर निकल गया, या भाग गया। भागना पड़ा, क्योकि उस समय दूसरे-तीसरे जयसागरके साथ मेरा प्रामाणिक सम्बन्ध स्थापित नही हो सका था। दूसरे जयसागर काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छमे हुए थे। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार थी - सोमकीर्ति, विजयसेन, यश.कोर्ति, उदयसेन, त्रिभुवनकीर्ति, और रत्नभूषण । रत्नभूषण ही जयसागरके गुरु थे। उनका समय वि० सं० १६७४ माना जाता है। उन्होने संस्कृतमे 'पावपंचकल्याणक' और हिन्दीमे 'ज्येष्ठ जिनवरपूजा', 'विमलपुराण', 'रत्नभूपण स्तुति' तथा 'तीर्थनयमाला की रचना की। इसी 'विमलपुराण' से सिद्ध है कि आचार्य सोमकीर्तिने गुजरातके सुल्तान फोरोज़शाहके समक्ष आकाशगमनका चमत्कार दिखाया था। तीसरे जयसागरको ब्रह्म जयसागर कहते है। वे अठारहवी शताब्दीके प्रथम पादमे हुए है । उनका सम्बन्ध मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणकी सूरतशाखासे था। उनके गुरु मेरुचन्दका समय वि० सं० १७२२-१७३२ सिद्ध है। ब्रह्म जयसागर हिन्दीके सामर्थ्यवान् कवि थे। उन्होंने 'सीताहरण', 'अनिरुद्धहरण' और 'सगरचरित्र'की रचना की। तीनों ही प्रबन्धकाव्य हैं। उनका कथानक आकर्षक है, सम्बन्धनिर्वाह पूर्ण हुआ है। इसी प्रकार एक ही नामके दो-दो तो कई कवि हुए। यथास्थान उनका विश्लेषण है । इस ग्रन्थमे उन रचनाओंको छोड़नेका प्रयास किया गया है, जिनपर गठित विवादके मध्यसे मै किसी ठीक परिणामपर नहीं पहुँच पाया हूँ। ऐसा ही एक काव्य 'अध्यात्म सवेया' है। यह दि० जैन मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं० १२७में संकलित है। इसमे १०१ पद्य है। डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल इस कृतिको पाण्डे रूपचन्दकी रचना मानते हैं । उनका आधार है अन्तमे लिखा हुआ, 'इति श्री अध्यात्म रूपचन्दकृत कवित्त समाप्त।' किन्तु रूपचन्द नामके चार कवि हुए, जिनमे दोका सम्बन्ध 'अध्यात्म से था ही। वे दोनो समकालीन थे। एक थे पाण्डे रूपचन्द । उनकी शिक्षा-दीक्षा बनारसमे हुई थी। उच्चकोटिके विद्वान् थे। कवि बनारसीदासके अध्यात्म-सम्बन्धी भ्रमका निवारण उन्होने किया था। वे हिन्दीके ख्यातिप्राप्त कवि थे। किन्तु उनकी रचनाओं और 'अध्यात्म सवैया'की शैलीमें नितान्त पार्थक्य है। इसके अतिरिक्त पाण्डे
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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