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________________ भूमिका १३ था। आचार्य हेमचन्द्रने अपभ्रंश और देशभाषामे स्पष्ट अन्तर स्वीकार किया है। देशभाषाको ही प्राचीन हिन्दी कहते है। यही आगे चलकर विकसित हिन्दीके रूपमे परिणत हुई। अपभ्रंश और प्राचीन हिन्दीकी साथ-साथ रचनाएँ होती रही। दोनोमे भेद कर पाना मुश्किल है । स्वयम्भूका ‘पउमचरिउ' और पुष्पदन्तका 'महापुराण' हिन्दीकी कृतियाँ नही है। इनमे बिखरे हुए कुछ स्थल देशभाषाके हैं, किन्तु वे अल्प ही है । पुष्पदन्तसे ४० वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्दका 'कथाकोष' देशभाषाका काव्य-ग्रन्थ है। जिनदत्तसूरि (वि० सं० १२७४) का 'उपदेशरसायनरास' दुरूह अपभ्रंशका निदर्शन है, जब कि इसीके आस-पास बने जिनपद्मसूरिके 'थूलिभद्दफागु'मे देशभाषाके दर्शन होते है । अत. सिद्ध है कि वि० सं० को दसवीं शताब्दीके प्रारम्भसे ही हिन्दी पनपने लगी थी। उनकी अनेक भक्तिपरक रचनाएँ प्राप्त हुई है। ये उस युगमे लिखी गयी जिसे पं० शुक्लने वीरगाथाकाल नाम दिया है ( वि० सं० १०५०-१३७५ )। इस युगमे बौद्ध सिद्धोने भी पर्याप्त लिखा। इसी आधारपर महापण्डित राहल सांकृत्यायनने इस कालको 'सिद्धकाल' कहा और डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी उसे 'आदिकाल' कहते है, क्योकि इस नाममे 'बोर' 'भक्ति' और 'सिद्ध' सभी कुछ खप जाता है। किन्तु एक प्रश्न फिर भी बना रहा कि इस कालकी मुख्य प्रवृत्ति क्या थी? वह कुछ भी हो, इतना सिद्ध है कि हिन्दीमे जैनभक्तिकी रचनाओंका प्रारम्भ हो गया था, किन्तु था वह प्रारम्भ ही। उसका विकास १४वीं शताब्दीमे देखा जाने लगा। १५वीं शती तो जैनभक्तिके पूर्ण यौवनका काल था। मेरी दृष्टिमे वह १९वीं शती तक निरन्तर अबाधित गतिसे चलता रहा । प्रस्तुत ग्रन्थमे इन्ही ४०० वर्षोके जैन भक्त कवियों और उनके काव्यका विवेचन है। हिन्दीके जैन भक्ति-काव्यमे भट्टारको, सूरियो और सन्तोंका विशेष योगदान है। पण्डितों और साधारण गृहस्थोने भी लिखा। उनका कान्य भक्ति-रसका ही प्रतीक है। कुछने अपना परिचय दिया और कुछने नही। खोज की, ढूँढ़ा, कुछ मिला और कुछ नहीं। जो कुछ प्राप्त हुआ, उस आधारपर जितना प्रामाणिक अंश दे सका, दिया । यदि उसमे कुछ कमी रह गयो है या वह नितान्त प्रामाणिक नहीं बन सका है, तो आगे अनुसन्धित्सु उसे पूरा करेंगे, इसी आश्वासनके साथ यह ग्रन्थ पाठकोंके समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ। इतना अवश्य कहना होगा कि जैन-काव्यमे एक ही नामके अनेक कवि होते रहे, आज उनपर लिखते समय एक जालमे उलझ जाना होता है । ज्ञानभूषण नामके चार भट्टारक हुए। उनमे 'आदीश्वरफागु' के रचयिताकी खोज एक मुश्किल काम था। इसी भाँति चार रूपचन्द्र और चार
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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