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________________ १५४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "अपने अपने कंत सूं, रस वस रहिया जोइ। उदैराज उन नारि , जमें दुहागन होइ ॥ जां लगि गिरि सायर अचल, जांम अचल द्र राज । तां लगि रंग राता रहे, अचल जोडि ब्रजराज ॥७८॥" ४५. हीरानन्द मुकीम (वि० सं० १६६८ ) शाह हीरानन्द जगतसेठके पुत्र ओसवाल जैन थे। वे आगराके रहनेवाले थे। उनके पास अरिमित धन था।' आगराके सर्वोत्तम जौहरियोंमे उनकी गणना थी। शहजादा सलोमसे घनिष्ठ सम्बन्ध था। उन्होंने सम्मेदशिखरजीकी यात्राके लिए संघ निकाला था। इसका उल्लेख कविवर बनारसीदासजीके 'अर्धकथानक में हुआ है। उन्होने लिखा है कि वि० सं० १६६१ चैत्र सुदी २ को हीरानन्द मुकीमने प्रयागपुर नगरसे सम्मेदशिखरको संघ चलाया। स्थान-स्थानपर पत्र भेजे गये। चारों ओर सूचना फैल गयी। वनारनीदासजीके पिता खड़गसैनके पास भी पत्र आया और वे इस यात्राके निमित्त घोड़ेपर चढकर घरबारको छोड़कर तुरन्त चल पड़े, और नन्दजीसे जा मिले। उसी वर्ष संघ वापस भी लौट आया। अनेकों मर गये या बीमार हो गये । खड़गसैन भी बीमार अवस्थामें ही घर आये थे। इस यात्राका सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करनेवाला एक हस्तलिखित गुटका श्री अगर१. साहिब साह सलीम को, होरानन्द मुणीम, औसवाल कुल जोहरी, वनिक वित्त को सीम ॥२२४॥ अर्धकथानक, पं० नाथूराम प्रेमी संपादित, बम्बई १९५७, पृष्ठ २५ । २. आयो संवत् इकसठा, चैत मास सित दूज ॥२२३॥ तिन प्रयागपुर नगर सौं, कीजो उद्दम सार । संघ चलायो सिखर को, उतरयौ गंगा पार ॥२२५॥ ठोर ठोर पत्री दई, भई खबर जित तित्त । चीठी आई सैन कौं, आवह जात निमित्त ॥२२५॥ खरगसन तब उठि चलै, ह तुरंग असवार । जाइ नंदजी की मिले, तजि कुटुम्ब घरबार ॥२२७॥ वही, पृष्ठ २५-२६॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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