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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "एकोइ कवित्त कहई हुवई, तिकौ मनिष पंडित लहर, उदैराज संपूरण मुखे करइ, तिको अनेक वातां कहइ ॥ ५७|| " चौवीस जिन सवैया' इसकी १९वी शताब्दीकी लिखी हुई एक प्रति बीकानेर बृहद्ज्ञानभण्डारमें सुरक्षित है । इस काव्यमे चौबीस तीर्थकरोकी भक्तिमे २०० सवैयोंका निर्माण हुआ है। सभी भक्ति रसके उत्तम दृष्टान्त है । रचना प्रौढ़ है । उसका आदि भाग देखिए, "प्रथम ही तीर्थंकर रूप परमेश्वर की, वंश ही इक्ष्वाकु अवतंश ही कहायों है 1 वृषभ लांछन पग धोरी रहै धींग जावै, धन्य मरु देव ताकी कुक्षी आयो है ॥ राज ऋद्धि छोर करि मिक्षाचार भेष भये, समता संतोष ज्ञान केवल ही पायौ है । १५३ नाभिराय जू को नंद नमै सुरनर वृन्द, उदय कहत गिरि शत्रुंजे सुहायौ है ॥ १॥" मनःप्रशंसा दोहा इसकी एक प्रति जयपुरके बड़े मन्दिर के गुटका नं० १२४ में निबद्ध है । मनको सम्बोधन करके अनेक दोहोंका निर्माण हुआ है । वैद्य विरहिण प्रबन्ध इसकी एक प्रति वि० सं० १७७२ कार्तिक सुदी १४ की लिखी हुई अभय जैनग्रन्थालय बीकानेर में सुरक्षित है । इसमे कुल ७८ दोहे हैं । सभी शृंगारिक भक्तिसे बोतप्रोत है । विरहज्वरसे प्रपीड़ित नारी ब्रजराजरूपी वैद्यके पास जाती है और उसके सभी रोग ठीक हो जाते हैं । "एकन दिन ब्रजवासिनी, दिल में दई उहार । हौं दुखहारी बैद पै, जाइ दिखाऊं नारि ॥ को विरहिन जिय सोच मैं, घर अपनी जिय श्रास । रिगत पान क्यों कर दनै, गयौ बैद पै पास ||२||” १. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोकी खोज, भाग ४, अगरचन्द नाहटा, उदयपुर, १६५४, पृष्ठ १२२ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग २, पृष्ठ ३५-३६ / २०
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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