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________________ १५२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रतिको मुनि महिमाणिक्यने मूर्यपुरके मध्य सुश्रावक साह माणिकजी हांसजीक्के पढ़नेके लिए लिखी थी। दूसरी प्रति भुवन विशाल मणिके द्वारा वि० सं० १८१२ माघ वदी ९ को पूगलमे लिखी हुई अभय भण्डार बीकानेरमे मौजूद है। तीसरी प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरमै उपलब्ध गुटका नं० १२४ मे निबद्ध है। ___इस ग्रन्थमे सन्त काव्यकी भांति पावण्डका निराकरण और आत्माको सम्बोघन कर अध्यात्मसम्बन्धी पद्योंकी रचना की गयी है। इसमे कुल ५७ पद्य है । प्रारम्भिक मंगलाचरणमे ही 'प्रणव अक्षर' रूप परमेश्वरको नमस्कार करते हुए कविने कहा है, "ऊंकाराय नमो अलख अवतार अपरंपर, गहिन गुहिर गंमीर प्रणव अख्यर परमेसर । त्रिएह देव त्रिकाल त्रिएइ अक्षर त्रेधामय, पंचभूत परमेष्ठि पंच इन्द्री पराजय । धुरिमत्र यंत्रइ धंकारि धुरि, सिध साधक मार्षति सह मद्रसार पयंपइ गुर संमत उदैपुत्र ओंकार कहि ॥१॥" अन्तःकरणको निर्मल बनानेसे ही सब काम चलते हैं। बाह्याडम्बर तो व्यर्थ है। 'शिव शिव'का उच्चारण करनेसे क्या होता है, यदि काम, क्रोध और छलको नहीं जीत लिया। जटाओके बढ़ानेसे क्या होता है यदि पाखण्ड न छोड़ा। सिर मुड़ानेसे क्या होता है यदि मन न मुडा। इसी प्रकार घर-बारके छोड़ने से क्या होता है यदि वैराग्यकी वास्तविकताको नहीं समझा, "शिव शिव किधां किस्यू', जीत ज्यों नहीं काम क्रोध छल, काति कहनायां किस्यू, जो नहीं मन माझि निरमल । जटा बधायां किसू, जांम पाखंड न छंडयउ, मस्तक मूख्यां किसू, मन जौं माहि न मूंडयउ, लूगडे किसूं मैले कीये, जो मनमाहि मइलो रहइ, घरबार तज्यां सीधउ किसू, अणबूझा उदो कहइ ॥५३॥" अपनी इस बावनीकी प्रशंसा करते हुए कविने कहा है, "जबतक समुद्र, ध्रुव, मेरु, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्र और ब्रह्मा-विष्णु-महेश है, तबतक यह बावनी रहेगी, और उत्तरोत्तर उसकी कला बढ़ती ही जायेगी। इस बावनीके कहने, सुनने और लिखनेसे भी अनेकों ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त होती है। सम्पत्ति बढ़ती है और सुख मिलता है। एक कवित्तके कहने-मात्रसे ही मनुष्य पन्हित हो जाता है, १. गुहनाक्नी, पथ ५५
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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