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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
'मन प्रशंसा- दोहा' अत्यधिक प्रसिद्ध है । 'मित्रबन्धु विनोद' मे 'रंगेजदीन महताब 'को भो इनकी ही रचना माना है । इसके अतिरिक्त 'वैद्य विरहिणी प्रबन्ध' भी इन्हीका रचा हुआ है । गुगबावनी कही 'सुभाषित वावनी' और कहीं 'गुणभासा' के नामसे प्रसिद्ध है |
भजनछत्तीसी
इस काव्यकी रचना वि० सं० १६६७ फाल्गुन वदी १३ शुक्रवार के दिन हुई थी । इमका रचनास्थल जोधपुर राज्यान्तर्गत 'मांडावाइ' नामका स्थान माना जाता है । उस समय वहाँ जगमाल नामका राजा राज्य करता था । प्रत्येक भजन भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिसे युक्त है । भाषाके प्रवाह और भावोंकी प्रौढ़ताको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कविकी काव्य-शक्ति पर्याप्त रूपसे विकसित थी । एक स्थानपर कविने आत्माको सम्बोधन करते हुए कहा है कि तू भगवान् जिनेन्द्रसे प्रीति कर | यह प्रीति सांसारिक सम्बन्धों और मानापमानोंको दूर करनेमे पूर्ण रूपसे समर्थ है,
"प्रीति आप परजले, प्रीति अवरां परजालै । प्रीति गोत्र गालबै, प्रीति सुभवंश विटाले ॥ प्रीति काज घर नारि, छेद दे छोरू छोड़े । प्रीति लाज परिहरे, प्रीति पर खंड़े पाड़े ॥
धन घटै देत दुख अंग मैं, अमख भखै श्रजरो जरै ।
उदैराज कहै सुणि श्रातमा, इसी प्रीति जिणऊं करे ॥
इस छत्तीसोको पढ़नेवालेके दुःख सब दूर हो जाते हैं और पाप पलायन कर
जाते है,
" मद्रसार चरण प्रणाम करि, मैं अनुक्रम मंख्या कवित । त्रैलोक छतीसी बांचता दुःख जाइ नासै दुरति ॥”
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गुण बावनी
इस काव्यको रचना बबेरइमें वि० सं० १६७६ वैशाख शुक्ला १५ को हुई थी । इसकी सबसे प्राचीन प्रति वि० सं० १७३६ की लिखी हुई प्राप्त हैं । इस
१. मित्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग, पृष्ठ ३६४ ।
२. बदि फागुण शिवरात्रि, श्रवण शुक्रवार समूरत ।
मांडावाह मंझारि, प्रभु जगमाल पृथी पति ||
भजनद्यत्तीसी, पद्य ३७ ।
३. गुण बावनी, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य ५६, जैनगुर्जरकवि, पृष्ठ ६७६ ।