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जैन मक्ति-काव्यका कला-पक्ष
पूछत कुशल मेरी, ऐसी दशा माही मित्र ! काहे की कुशल है" मे 'मित्र' और बनारसीदासके "छिन न सुहाय और रस फीके", "रुचि साहिबके लौन सौ" मे 'साहिब' इतने उपयुक्त स्थानपर बैठा है कि उसको वहांसे हटा देनेपर समूचा सौन्दर्य ही विनष्ट हो जायेगा। ____ मुहावरोंके प्रयोगमे भूधरदास अधिक कुशल है । उन्होने अपने पदोंमे मुहावरोंको नगीनेकी भांति जड़ दिया है। बुढापेका वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है, "ऐसे ही गई विहाय अलप-सी रही आय, नर परजाय यह आंधे की बटेर है।" एक दूसरे स्थानपर उन्होने मनुष्यको अपने जीवनके प्रति सावधान किया है, "अहो आग आयै जब झोपरी जरन लागी, कुआँके खुदायै तब कौन काज सरिहै।" भूधरदासका कथन है कि मनुष्यके दिन सोच-विचारमे ही व्यतीत हो जाते है, और एक दिन अचानक यमराज आ जाता है, तब, "खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाय रुपी शतरंज को बाजी ।" यह जानते हुए भी कि विश्वमे दुःख-हीदुःख है, मनुष्य उसमे अधिकाधिक ग्रस्त होता जाता है, इसपर भूधरने लिखा, "आंखिन विलोकि अन्ध सूसे की अंधेरी करै ऐसे राजरोग को इलाज कहा जग मे।" बनारसी विलासमे ज्ञानबावनीके विषयमे लिखा है, "वही अधिकार आयो ऊंघते विछोना पायो, हुकुम प्रसाद तें भयो है ज्ञानबावनी ।" 'वेदनिर्णय पंचासिका' में इस जीवको मूर्ख कहते हुए बनारसीदासका कथन है, “मतवारो मूरख न मान उपदेश जैसे, उलुवा न जाने किस ओर भानु उवा है।" भैयाके पदों और कवित्तोमे भी यत्र-तत्र मुहावरे दृष्टिगोचर होते है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा है, "चेत रे अचेत पुनि चेतबे को नाहिं ठौर, आज कालि पीजरे सों पंछी उड़ जातु है।" एक कवित्तमे उन्होंने कहा, "ऐसो है सरूप मेरो तिहूं काल सुद्ध रूप, ज्ञान दृष्टि देखतें न दूजी परछाही है ।" ___ जहांतक प्रसाद गुणका सम्बन्ध है, अनेक जैन कवियोमे पाया जाता है। उनमे भी विनोदीलाल और भूधरदास अधिक प्रसिद्ध है। विनोदीलालके 'नेमिराजुल बारहमासा'मे सरलता है और सरसता भी। कात्तिकके लगनेपर राजुल नेमीश्वरसे कहती है,
"पिय कातिक में मन कैसे रहै, जब भामिनि मौन सजावेंगी। रचि चित्र विचित्र सुरंग सबै, घर ही घर मंगल गावेंगी। पिय नूतन नारि सिंगार किये, अपनो पिय टेर बुलाबैंगी।