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चैन भक्ति-काका कला-पक्ष
भैया भगवतीदासने भी छप्पयोंका प्रयोग भक्तिके क्षेत्रमे ही किया । उनके द्वारा रची गयी 'चतुर्विशति जिनस्तुति' का एक छप्पय है,
"जिनवर ताराचंद, चंदतारा नित वंदै । वंदे सुरनर कोटिकोटि, सुरवृंद अनंदै ॥
आनँद मगन जु आप, आप हस्तिनपुर श्राये ।
आये शांति जिनदेव, देव सब ही सुख पाये ||
पाये सुमात ऐरारतन, तन कंचन विश्वसेन गिन ।
नि सु कोष गुन को वन्यो, वन्यो सुतारन तरन जिन ।। " "
कुण्डलिया
बनारसीदासने 'नाटक समयसार में चार कुण्डलिया भी लिखी हैं । 'बनारसीविलास' में भी यत्र-तत्र अनेक कुण्डलियोंका प्रयोग हुआ है । 'वेद निर्णय पंचासिका' की एक कुण्डलिया निम्न प्रकार है,
"ऊपर सब सुरलोक के, 'ब्रह्मलोक' अमिराम | सो 'सरवारथसिद्धि' तनु, पंचानुत्तर नाम ॥ पंचानुत्तरनाम, धाम एका अवतारी । तहां पूर्वभव बसे, ऋषभजिन समकितधारी ॥ ब्रह्मलोक सों चये, भये ब्रह्मा इहि भूपर तातें लोक कहान, देव 'ब्रह्मा' सब कार ॥
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भैया भगवतीदासने भी कुण्डलिया छन्दका 'शत अष्टोत्तरी' को एक कुण्डलिया इस भांति है,
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प्रयोग किया है। उनकी रचना
" सूवा सयानप सब गई, सेवो सेमर वृच्छ । आये धोखे आम के, यापै पूरण इच्छ ॥ या पूरण इच्छ वृच्छ को भेद न जान्यो । रहे विषय लपदाय, मुग्धमति भरम भुलान्यो ॥ फलमहिं निकसे तूल स्वाद पुन कछू न हूवा । यहै जगत की रीति देखि सेमरसम सूवा ॥ ३
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१. भैया भगवतीदास, चतुर्विंशतिजिनस्तुति, १६वाँ छप्पय, ब्रह्मविलास, पृ० १६ |
२. कवि बनारसीदास, वेदनिर्णय पंचासिका, ४८वाँ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर १६५४ ई०, पृ० ६६ ।
३. भैया भगवतीदास, शत अष्टोत्तरी, ७४वॉ पद्य, ब्रह्मविलास, पृ०, २५१