________________
४४२
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि घनाक्षरी __ घनाक्षरी भी जैन हिन्दी कवियोंका प्रिय छन्द है। 'बनारसी विलास'में संकलित 'ज्ञान बावनी' का निर्माण घनाक्षरीमे ही हुआ है। उसका एक छन्द देखिए, "फटिक पाषाण ताहि मोतीसर मानै कोऊ,
धुंघची रकत कहा रतन समान है। हंस बक सेत इहां सेत को न हेत कछू,
रीरी पीरी भई कहा कंचन के बान है। भेष भगवान के समान कोऊ आन मयो,
मुद्रा को भडान कहा मोक्ष को सुथान है । बनारसीदास ज्ञाता ज्ञान में विचार देखो,
काय जोग कैसो होउ गुण परधान है ॥"' फागु
फागु एक प्रकारका लोक-गीत है। यह प्रायः वसन्तमे गाया जाता था । आगे चलकर उसका प्रयोग किसीके भी आनन्दवर्णन और सौन्दर्यनिरूपणमे होने लगा। जिनपद्मसूरिका 'थूलिभद्द फागु' ऐसा ही एक काव्य है। जैन हिन्दोके कवियोने भगवान् जिनेन्द्रकी महिमाके अर्थमे 'फागु' का प्रयोग किया है । राजशेखरसूरिका 'नेमिनाथफागु', श्री सोमसुन्दरसूरिका 'नेमिनाथनवरसफाग', भट्टारक ज्ञानभूषणका 'आदीश्वरफाग', और बनारसीदासका 'अध्यात्मफागु' प्रसिद्ध रचनाएँ है । राजशेखरसूरिके 'नेमिनाथफागु' में लिखी हुई राजोमतीके सौन्दर्यकी कतिपय पंक्तियां
देखिए,
पद
"किरि ससिलिंब कपोल कन्नहिं डोल फुरता।
नासावंसा गरुड-चंचु दाडिमफल दंता ॥ प्रहर पवाल तिरेह कंटु राजल सर रूडउ ।
__ जाणुवीणु रणरणइं जाणु कोइल टहकडलउ॥"" हिन्दीके भक्ति-काव्यमें पदोंका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सूरदासके विकसित पदोंको देखकर पं० रामचन्द्र शुक्लने अनुमान किया था कि सूरसागर दीर्घकालसे
१. शानबाबनी, ४१ वी घनाक्षरी, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, पृ० ८६-८७ । २. राजशेखरसूरि, नेमिनाथ फागु, राहुल सांकृत्यायन, हिन्दीकाव्यधारा, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, १९४५ ई०, पृ० ४८० ।