________________
जैन मक्ति-काव्यका कला-पक्ष
चली आती हुई किसी पुरानी परम्पराका विकास है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने उनका मूल स्थान बौद्ध सिद्धोके गानोंको माना है। उसका मूल रूप कुछ भी हो, किन्तु भक्ति और अध्यात्मके क्षेत्रमे पदोंका जितना अधिक प्रयोग जैन कवियोंने किया, अन्य न कर सके । राजस्थानके जैन भण्डारोके नवीन अनुसन्धानमें ६० से अधिक जैन कवियोंके रचे हुए २५०० के लगभग हिन्दी पदोंका पता चला है । इस ग्रन्थमे भी अनेक पदरचयिताओंका उल्लेख हुआ है। उनमें बनारसीदास, कुंअरपाल, यशोविजय, महात्मा आनन्दधन, भैया भगवतीदास, द्यानतराय, विनयविजय, जगराम, देवाब्रह्म, और भूधरदास अत्यधिक प्रसिद्ध है ।
जैन पदोंमे भावाभिव्यक्तिके साथ-साथ संगीतात्मकता भी विविध रागरागनियोंके साथ-साथ पायी जाती है। अकेले 'भूधरदास'ने ही भूधर विलासमें राग सोरठ, राग काफी, राग ख्याल, राग पंचम, राग नट, राग सारंग, राग मलार, राग विहागरो, राग बिलावल. राग गौरी, राग धमाल,राग प्रभाती, रागघनासरी, राग सारंग, राग कल्याण, राग बरवा, राग विहाग, और राग घनासारीका प्रयोग किया है। बनारसीदासने राग भैरव, राग रामकली, राग बिलावल, राग आसावरी, राग बरवा, राग घनाश्री, राग सारंग, राग गौरी और काफीमें अधिक लिखा है। महात्मा आनन्दधन तो राग-रागिनियोके पण्डित ही थे। उनके पद रस प्रवाहित करने मे अद्वितीय माने जाते है । 'धानतविलास' के पदोंमें भी अनेक नये-नये रागोंका प्रयोग हुआ है, उनमे राग केदारो, राग परज और राग बसन्त तो बिलकुल नये हैं। भूधरदासके राग घनासारीका एक पद देखिए,
"शेष सुरेश नरेश र तोहि, पार न कोई पावै जू ॥ काटै नपत व्योम विलसत सौं, को तारे गिन ला जू ॥शेष०॥ कौन सुजान मेघ बूंदन की, संख्या समुझि सुनावै जू ॥शेष०॥ भूधर सुजस गीत संपूरन, गनपति मी नहि गावै जू शेष०॥"
१. “अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परम्पराका-चाहे वह
मौखिक ही रही हो-पूर्ण विकास-सा प्रतीत होता है।" पं० रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्यका इतिहास, संशोधित और परिवर्तित संस्करण,
काशी नागरी प्रचारिणी सभा, प्रयाग, १९९७ वि० सं०, पृ० २००। २. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पंचम व्याख्यान,
पृ०१०८। ३. भूधरदास, भूधरविलास, ५२ वॉ पद, पृष्ठ २६ ।