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हिन्दी जैन भकि-काव्य और कवि ८८. पं० दौलतरामजी (वि० सं० १७७७-१८६९)
पं. दौलतरामजीका जन्म जयपुर स्टेटके वसवा नामक गाँवमे हुआ था। आज भी यह जयपुरका एक कसबा है। यह दिल्लीसे अहमदाबाद जानेवाली बी० बी० एण्ड सी० आई० आर० का एक स्टेशन भी है।
दौलतरामजीके पिताका नाम आनन्दराम था। उन्होने अपनी प्रत्येक रचनाके अन्तमे 'आनन्दराम सुत दौलतरामेन' लिखा है। उनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र कासलीवाल था । वे जयपुरमे आकर रहने लगे थे।
वसवामे दौलतरामजीके घरके सामने हो विशाल जैन मन्दिर था। वहां जिनपूजन, शास्त्रस्वाध्याय तथा तत्त्वचर्चा होती ही रहती थी। बालपनमें दौलतरामजीका झकाव जैनधर्मको और नहीं था। इसी मध्य उनका आना आगरा हआ। वहाँ बनारसीदासको अध्यात्म-परम्परा अनेक विद्वानोका जमघट था। उनमे पं० भूधरदासजीको सर्वाधिक ख्याति थी। दौलतरामजीने उन्हें भूधरमलके नामसे पुकारा है। उनके अतिरिक्त हेमराज, सदानन्द, अमरपाल, बिहारीदास, फतेहचन्द, चतर्भुज और ऋषभदासके नाम भी विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। इन्हीं में से ऋषभदासजीके उपदेशसे दौलतरामको जैनधर्मपर विश्वास हुआ और आगे चलकर वह विश्वास अगाध श्रद्धाके रूपमे परिणत हो गया। दौलतरामने अपने गुरु ऋषभदासका अनेक स्थानीपर स्मरण किया है।
पं.दौलतरामजीका व्यक्तित्व असाधारण था। ये एक ओर तत्कालीन जयपुर और उदयपुरको राज्यनीतिके सूत्रधार थे और दूसरी ओर साहित्य-साधक भी। उनकी रचनाओसे उनकी विद्वत्ता भी स्पष्ट है । संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओंपर उनका समान अधिकार था। उन्होने जैन पुराणों और आध्यात्मिक ग्रन्थोका सफल हिन्दी-अनुवाद किया है । उनका गद्य हिन्दीको अमूल्य निधि है । 'अध्यात्म बारहखड़ी' नामके ग्रन्थमें उनकी मौलिक काव्य-प्रतिभाके दर्शन होते है।
पं० दौलतरामजी जयपुरके महाराज सवाई जयसिंहके पुत्र माधवसिंहके मन्त्री थे। माधवसिंह उदयपुरमे रहते थे, अतः पं० दौलतराम भी वि० सं० १८८६ से सं० १८०८ तक उदयपुरमे रहे । माधवसिंहके जयपुराधीश होनेपर वे जयपुर में आकर रहने लगे। उनका लम्बा समय उदयपुरमें बीता। वैभवसम्पन्न होते हुए
१. पुण्याश्रव टीकाको अन्तिम प्रशस्ति । २. वसुवा का वासी यह अनुचर जय को जानि । मंत्री जयसुत को सही जाति महाजन जानि ।। पुण्याश्रवकथाकोशकी अन्तिम प्रशस्ति ।