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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
भी पण्डितजीका हृदय उदार और दयालु था। उनका जो समय राज्यकार्योसे बचता था, उसका उपयोग वे पूजन, ध्यान, अध्ययन और ग्रन्थ-निर्माणमें करते थे। उनका रहन-सहन सादा और पवित्र था। रचनाएँ
पं० दौलतरामने सर्वप्रथम 'पुण्यास्रव कथाकोश'को भाषा-टीका वि० सं० १७७७ मे की। तदुपरान्त उन्होने 'वसुनन्दीश्रावकाचार'को टब्बा टोकाका निर्माण वि० सं० १८०८मे किया। उनके द्वारा 'पद्मपुराण' को भाषा-टीका वि० सं० १८२३, 'आदिपुराण'को १८२४, 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय'की १८२७ और 'हरिवंशपुराण'की १८२९ मे की । श्रीयोगीन्दुके 'परमात्मप्रकाश'की टोकाके विषयमे डॉ० ए० एन० उपाध्येने लिखा है, "इस बातको कोई अस्वीकार नही कर सकता कि इस हिन्दी अनुवादके ही कारण जोइन्दु और उनके 'परमात्मप्रकाश'को इतनी ख्याति मिली है।' उन्होंने 'हरिवंशपुराण' के साथ ही 'श्रीपालचरित'का भी हिन्दी अनुवाद किया था । इन टोकाओमे मौलिकता भले ही न हो, ऐमी सरसता है, जिसके कारण आज भी लोग उन्हें रुचिपूर्वक पढते है । अनेक जैन नर-नारियोंने केवल 'पद्मपुराण' पढ़नेके लिए हो हिन्दी सीखी और बावा भागीरथ-जैसे अनेक अजैन 'पद्मपुराण'की हिन्दी टीका पढ़कर जैन-श्रद्धानी हो गये।
'परमात्मप्रक्राग'को टीकामे पं० दौलतरामको आध्यात्मिक प्रवृत्ति स्पष्ट हो है। उन्होंने 'अध्यात्मवारहखड़ी' नामके एक मौलिक ग्रन्थका भी सृजन किया था। उन्होंने उसका दूसरा नाम 'भक्त्यक्षरमालिका बावनी स्तवन' भी लिखा है। यह पण्डितजीकी समर्थ काव्यशक्तिका प्रतीक है। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां विविध शास्त्र-भण्डारोमें मौजूद है । बड़ा मन्दिर जयपुर, दि० जैन मन्दिर बड़ौत और नया मन्दिर दिल्लीकी प्रतियां मैने देखी हैं। सभोमे इसका रचनाकाले वि० सं० १७९८ दिया हुआ है।
इस कृतिमे हिन्दोके ५२ अक्षरोमे-से प्रत्येकको लेकर काव्य-रचना की गयो है। इसमे आठ परिच्छेद है। पं० दौलतरामने सबसे पहले मन्दाक्रान्ता, मालिनी, स्रग्धरा, उपेन्द्र वज्रा और शार्दूलविक्रीडित-जैसे संस्कृतके छन्दोका हिन्दीमे प्रयोग किया। इस रचनामें गोता और मोतीदाम-जैसे नवीन छन्द भी है। इनके अतिरिक्त उन्होने दूहा, चौपई, सवैया, कवित्त, छप्पय, बरवै, कुण्डलिया, अडिल्ल, त्रोटक, पद्धणी, भुजंगप्रयात, नाराच, त्रिभंगी और सोरठामे भी कविता की।
१. परमात्मप्रकाशकी अंगरेजी प्रस्तावनाका हिन्दी अनुवाद ।