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जैन भक्तिः प्रवृत्तियाँ
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बावनियोंका निर्माण होता रहा है। जैन हिन्दी-कवियोंने उनका अधिकाधिक निर्माण किया। उनमे भक्तिपरक अनुपम भाव सन्निहित है ।उदयराज जतीकी 'गुणबावनी', हीरानन्द मुकीमकी 'अध्यात्मबावनी', पाण्डे हेमराजको 'हितोपदेशबावनी', पं० मनोहरदासको 'चिन्तामणि मानबावनी', जिनहर्षकी 'जसराजबावनी', जिनरंगसूरिकी 'प्रबोधबावनी', लक्ष्मीबल्लभकी 'दूहाबावनी' और 'सवैयाबावनी', किशनसिंह की 'बावनी', निहालचन्दकी 'ब्रह्मबावनी' और भवानीदासको हितोपदेश बावनी', बावनी साहित्यकी महत्त्वपूर्ण कृतियां है। हेमराजकी 'मक्षरबावनी" का एक पद्य इस प्रकार है,
"उज्ज्वल निरमल चित्त प्रभु नित्य सेव रे । ध्याइये शुकल ध्यान पामीये केवक ग्यान चरण कमल नमित जी अहमेव रे ॥ हीश्रा की कुमति हरि जीव में सुमति धरि पूजिये ज सुद्ध भाव भगवंत देव रे । श्रेणिक रावण जाण पूजिये ज भगवान पूजाघ की जिन पद लह्यो ततषेव रे ॥ हेमराज भणई मुनि सुणो सजन जन मन
मेरो उमग्यो है जिण गुण गायबो ॥१०॥" जैन हिन्दी काव्यमें 'शतक' का प्रचलन कम था। १०० पद्योंकी रचनाको शतक कहते है । पद्य १०० से कुछ कम बढ़ भी हो सकते थे। पाण्डे रूपचन्दका ‘परमार्थी दोहाशतक' और भवानीदासके 'फुटकर शतक'का उल्लेख इस ग्रन्थमे है। भैयाके 'परमात्मशतक' मे भावगाम्भीर्यके साथ शब्दालंकारोंका सौन्दर्य भी उपलब्ध है। यमक और श्लेषका खूब प्रयोग हुआ है। पाण्डे हेमराजका 'उपदेश दोहाशतक' दीवान बधीचन्दजीके मन्दिर ( जयपुर ) के शास्त्रभण्डारमे उपलब्ध हुआ है । भवानीदासका 'फुटकर शतक' बनारसके रामघाटके एक प्राचीन जैनमन्दिरमें मिला है। बहत्तरियां तो शतकोसे भी कम रची गयीं। समूचे जैन हिन्दी काव्यमें आनन्दघनकी 'आनन्दधन-बहत्तरी' और श्री जिनरंगसूरिकी 'रंगबहत्तरी' ही बहत्तरीके नामसे रची गयी है। अन्य कृतियां भी हो सकती है । किन्तु वे अभीतक भण्डारोंकी खोजका विषय है। आनन्दघनबहत्तरीमें भक्ति और अध्यात्मका समन्वय है। उसके पद्य भावविभोरता और सरसताके लिए प्रसिद्ध
१. हेमराजकी अक्षरबावनीकी हस्तलिखित प्रति बड़े जैन मन्दिर, जयपुरमें मौजूद है।