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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
हैं। 'रंगबहत्तरी' में भी चेतनको भगवान्की ओर उन्मुख होनेकी बात कही गयी है। कवि द्यानतराय और बिहारीदासको दो कृतियां ऐसी है, जिनमें केवल ५० पद्य है। उनके नाम क्रमशः 'अध्यात्म-पंचासिका' और 'सम्बोध-पंचासिका' है।
हिन्दी के जैन कवियोंकी सर्वाधिक कृतियां बत्तीसी, छत्तीसी और पच्चीसियोंके नामसे रची गयीं। प्रायः इनका निर्माण व्यंजनाक्षरोको आधार मानकर किया गया है। बनारसीदासको 'ध्यानबत्तीसी' और 'अध्यात्मबत्तीसी', मनरामकी 'अक्षरबत्तीसी', अचलकीतिकी 'कर्मबत्तीसी', लक्ष्मीबल्लभकी 'चेतनबत्तीसी' और 'उपदेशबत्तीसी', भैया भगवतीदासको 'अक्षरबत्तीसी', भवानीदास तथा अजयराजको 'कक्काबत्तीसी' इनमे व्यंजनाक्षरोके आधारवाली ही बात है। भैया भगवतीदासने तो 'मनबत्तीसी', 'स्वप्नबत्तीसी' और 'सूआबत्तीसी' नामकी अन्य बत्तीसियां भी लिखी है । छत्तीसियोकी रचना भी पर्याप्त हुई है। कुशललाभको 'स्थूलभद्रछत्तीसी', सहजकीत्तिकी 'प्रातिछत्तीसी', उदयराज जतीकी 'भजन छत्तीसी', जिनहर्षकी 'उपदेशछत्तीसो', भवानीदासको 'सरधाछत्तीसी'
और बनारसीदासकी 'कर्मछत्तीसी' प्रसिद्ध कृतियां है । पच्चीसीमे केवल पच्चीस पद्य होते है । द्यानतरायको 'धर्मपच्चीसो', विनोदीलालकी 'राजुलपच्चीसी' और 'फूल-मालपच्चीसी' तथा बनारसीदासकी 'शिवपच्चीसी' पच्चीसी काव्यकी उज्ज्वल मणियां है। पच्चीसियोकी रचनामे 'भैया' का नाम सर्वप्रथम आता है। उन्होंने 'पुण्यपचीसिका', 'अनित्यपचीसिका', 'जिनधर्मपचीसिका', 'सम्यवत्वपचीसिका', 'वैराग्यपचीसिका', 'नाटकपच्चीसी', . 'ईश्वरनिर्णयपच्चीसी', 'कर्ता-अकर्ता पच्चीसी' और 'दृष्टान्तपच्चीसो' की रचना की है। ये सब 'ब्रह्मविलास'मे संकलित है।
रूपकोंमें भक्ति
हिन्दीका मध्यकाल रूपकोंका युग था। कबोर और सूरदास दोनों ही ने अपने भक्तिपरक भाव रूपकोके माध्यमसे ही अभिव्यक्त किये है। कबीरपर भले ही सूफी प्रभाव हो, किन्तु उन्होंने प्रेमके रूपकोंमे भारतीय परम्पराको ही अपनाया है । कबीरने पत्नीकी पतिके लिए बेचैनी प्रकट की है, पतिकी पत्नीके लिए नहीं । भगवद्विषयक अनुरागको लेकर हिन्दीके जैन कवि प्रेमरूपकोंकी रचना करते रहे हैं। उनका विवेचन इसी ग्रन्थके तीसरे अध्यायमें किया गया है। वहाँ सुमतिरूपी पत्नीका चेतनरूपी पतिके लिए बेचैनीका भाव प्रकट हुआ है।