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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
"श्री आदि जिन समरतां, हिरदै श्रायो ज्ञान |
ब्रह्म सुथानिक में कहौ, लिख्यौ धरम वरु ध्यान ॥ १२६ ॥ जीवकी मूर्खताका वर्णन करते हुए कविने लिखा है कि यह जीव गुरुके वचनोको तो सुनता नही, दिन और रात पाप करता है, विषय-विषमे मंलग्न है । धर्मका मर्म भी नही जानता ।
"गुरु का वचन सुणै नहिं कान, निसि दिन पाप करै अज्ञान । विषया विष सूं रचि पचि रहयौ, ध्यान धर्म को मरम न लहथौ ॥ ३५ ॥ " यौवन के आनेपर यह जीव मदमत्त हाथीकी भाँति झूम उठता है, भगवान्का
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भजन नहीं करता । मस्ती मे ही उसका जीवन बीतता रहता है,
"मरि जोवन हूवो मैमंत, भजो नहीं केवल भगवंत ।
hares दिन इ विधि गया, तीस बरस का जिव नर मया ॥ ३६ ॥ "
चिन्तामणिमान बावनी
इसकी एक हस्तलिखित प्रति दीवान वधीचन्दजीका मन्दिर जयपुर के गुटका नं० ८ निबद्ध है । यह गुटका वि० सं० १७२७, आसोज सुदी १४ का लिखा हुआ है । इस प्रतिमे कुल २० पद्य है । इसकी एक दूसरी प्रति इसी मन्दिर के गुटका नं० २७ मे संकलित है । इसमे ५३ पद्य है और वह एक पूर्ण प्रति है । 'चिन्तामणिमान बावनी' एक महत्त्वपूर्ण रचना है । इसके कतिपय पद्यों में रहस्यवादी रूपकोका निर्माण किया गया है। भक्तिका स्वर निर्गुणवादी सन्तोसे मिलता-जुलता है । तनके मध्य मे रहनेवाले अलख निरंजनके ध्यानकी बात उन्होंने भी कही है,
" ध सब जुग कहै म ण कोइ लहंत, अषु निरंजन ज्ञानमय इहि तनु मध्य रहंत | जग है मर्म्म नर थोड़ा बुझइ,
ब्रह्म बसै तनु मध्य मोहपटल हणवि सुष मय । मकु गुरु केरा वचन एहु कज्जल करि मंजन, ह्रिदय कमल जे नय सुमति अंगुलि किण अंजन |
जिम मोह पटल फट्टइ सयल द्विष्टि प्रकास फुरंत अति,
श्रीमानु कहै मति अग्लौं हो धर्मं पिछाण ण एहु गति ॥ ३५॥ "
सुगुरुसीप
इसकी एक प्रति उसी मन्दिरके गुटका नं० लिपिको साह हरीदामने लिखा था। इसकी एक
१६१ मे निबद्ध है । इस प्रतिदूमरी प्रति वि० सं० १८३२