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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
इसी भांति कविने एक दूसरे पद्यमे लिखा है कि यदि कोई दुर्जन इस भवसमुद्रसे पार उतरना चाहता है, तो उसके लिए सिवा जिनेन्द्रको दुहाईक अन्य कोई आलम्बन नही है ।
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" बारिधि के तरिब को बोहित विधान कियां,
सरता उतरने की नौका बनाई है। तम के नसावे को दीपकस्य भार घरी,
रोग के नसावे कौं ऊषद बनाई है ॥ धाराधर घूसने को मंदर अटारी गोम,
असुभ सो राषवे की किनि सुभ पाई है । ऐसि विधि दुरजनके उत बिहरबे की,
उदगत भयो जिनकी दुहाई है ॥ ३ ॥ "
ज्ञान चिन्तामणि
इन क व्यकी रचना संवत् १०२८ माह मुदी ७ भृगुवारको बुरहानपुरमे हुई थी। इनकी एक प्रति सं० १८२४, आपाढ वदी १० को लिखी हुई अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेरमे मौजूद है। इसकी प्रति गुटकाकार है और इसमें कुल वीस पन्ने है । उनपर १२९ पद्य अंकित है। दूसरी प्रति पचायती मन्दिर दहलीके शास्त्रभण्डारमे रखी हुई है। इसमें कुल ८ पन्ने है । उसपर रचना संवत् १७२८ पड़ा हुआ है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति दीवान बधीचन्दके मन्दिर, जयपुरके वेष्टन नं० १०१७, गुटका नं० ५१ मे निबद्ध है । उनमे १८ दोहरा, ५२ गाथाएं और ५८ चौपाई है ।
इसका विषय 'अध्यात्म से सम्बन्धित हैं, किन्तु मानवको मूलवृत्तियोके साहचर्य से उसकी शुष्कताका परिहार हुआ है। ज्ञानकी प्रधानता होते हुए भी यह स्पष्ट कहा गया है कि ज्ञान भक्ति से ही उपलब्ध हो सकता है । वह दोहा इस प्रकार है,
१. ऐसी जान ज्ञान मन घरो निरमल मन परमारथ करो । संवत् १७२८ माही मुदी मप्तमो भृगुवार कहाई ॥ १२३ ॥ नगर बुरहानपुर खान देश माही, मुमारख पुरा बसे गुणग्राह । घनें श्रावक बसें विख्यात, सदा धरम करें दिन रात ||१२४ ||
बीकानेरवाली प्रतिका अन्न, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खीज,
चतुर्थ भाग, पृष्ठ १३१ ।
२. अनेकान्त वर्ष ४, किरण १०, पृष्ठ ५६२ ।