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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २२१ जिनकी ही आस है।' 'जिनकी दुहाई जाकै जिन ही की आस है' में कवित्व है, और भक्ति भी। धर्म-परीक्षा इसकी रचना सं० १७०५में धामपुरमे हुई थी। कविने आगरेके रावत सालिवाहण, हिसारके जगदत्त मिश्र और धामपुरके ही पण्डित गेगुराजसे प्रेरणा पाकर इसकी रचना की। यह आचार्य अमितगतिकी 'धर्मपरीक्षा'का भाषानुवाद है। इस ग्रन्थमे ३००० पद्य है। उनमे भक्तिका भाव ही मुख्य है । आचार्य अमितगतिके मूल ग्रन्थमे भी भक्ति ही प्रधान है। इसकी अनेक प्रतियां विविध भण्डारोमे सुरक्षित है। उन्होने 'धर्म-परीक्षा'मे दोहा, सोरठा, सवैया और छप्पयका विशेष रूपसे प्रयोग किया है । आरम्भिक मंगलाचरण देखिए, "प्रमणु अरिहंतदेव गुरु निरग्रंथ दया धरम । ___ भवदधि तारन एव अवर सकल मिथ्यात मणि ॥" 'धर्म-परीक्षा'को एक हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर बड़ोतके वेष्टन नं. २७२ गुटका नं० ५७ मे संकलित है। यह प्रतिलिपि प्रेमचन्दने वि० सं० १८३२ मे की थी। कविने एक पद्यमे लिखा है कि परम ब्रह्मको छोड़कर अन्य मार्ग अपनाना व्यर्थ है । वह पद्य इस प्रकार है। "सर्व देव नित नवे, सर्व मिक्षक गुरु मानें । सर्व सासतरि पढ़ें, धर्म तें धर्म न जाने । सर्व तीरथ फिर आवै, परम ब्रह्म कौं छोड़ि प्रान मारग कौं ध्या । इह प्रकार जो नर रहै, इसी भाँति सोभा लहैं । अचरिज पुत्र वेश्या तणौ, कहाँ बाप कासौं कहैं ।।१॥" १. व्याकरण छंद अलंकार कछु पढ्यौ नाहि, भाषा में निपुन तुच्छ बुद्धि को प्रकास है। बाई दाहिनी कछ समझै संतोष लीय जिनकी दुहाई जाकै जिन ही की आस है ।। हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ६७ । २. वही, पृष्ठ ६७ । ३. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृ० २२६ । ४. सुमुनि अमितगति जान सहसकीत्ति पूर्व कही। या मै बुधि प्रमान भाषा कीनी जोरि के। वही पृष्ठ २२५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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