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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
उसका समूचा रूप प्राचीन हिन्दीका है । इसमे कुल ३१ प है । इस एक विस्तृत संस्कृत टीका भी है, किन्तु उसके रचयिताका नाम उसमें नही दिया है ।
निर्झर पंचमीविधानकथा
इस कथा में भविष्यदत्तका चरित्र लिखा गया है। भविष्यदत्त, भगवान् जिनेन्द्रका परम भक्त था । कथाका मूल स्वर भक्तिसे ही सम्बन्धित है ।
प्रारम्भ ही कविने पंचगुरु, शारदा और अपने गुरुके गुरु, मुनि उदयचन्दकी वन्दना की है,
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" पणविवि पंच महागुरु, सारद धरिवि मणे । उदयचंदु मुणि वंदिवि, सुमरिवि चाल मुणे ॥"
कविका विश्वास है कि जो कोई भव्यजन इस कथाको पढ़ता और पढाता है, उसके सब पाप क्षण-मात्रमे नष्ट हो जाते है । किन्तु ऐसा तभी हो सकता है, जब कि वह गर्व और क्रोधसे मुक्त हो, और उसका मन वशमें हो,
"भवियहु पढ़ पढ़ावहु दुरियहु देहु जले |
माणु म करहु म रूसहु, मणु खंचहु अचलो ॥" अन्तिम ॥
कविका यह भी कथन है कि जिस भावनासे प्रेरित होकर यह पंचमी कथा कही गयी है, वह सम्यक् भाव अविचल सिद्धिके दर्शन करानेमे पूर्ण समर्थ है, " जेण भणति भडारा पंचमियं वय हो ।
म्हहि ते दरिसाविय अविचल सिद्धिपहो ॥" अन्तिम ॥
इस कथाकी भाषा भी प्राचीन हिन्दी है, जिसमे अपभ्रंश और प्राकृतके शब्दोंका मिश्रण है ।
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पंचकल्याणकरा
तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्षको पंचकल्याणक कहते हैं ।
१. यह कान्य अनेकान्त, वर्ष ५, किरण ६-७ में पृष्ठ २५८-२६१ तक प्रकाशित हो चुका है।
२. देखिए पंचायती मन्दिर दिल्ली, मसजिद खजूरके सरस्वती भण्डारकी एक हस्तलिखित, प्राचीन प्रति ।
३. मुनि विनयचन्द्र, निर्झरपंचमीविधानकथा, हस्तलिखित प्रति, पंचायती मन्दिर, दिल्ली, प्रथम पद्य |
४. पंचायती मन्दिर दिल्ली, मसजिद खजूरके भण्डारकी हस्तलिखित प्रति है । पं० दीपचन्द्रजी पण्डयाके उस गुटकेमें, जो उन्हें देराट्र गाँवसे उपलब्ध हुआ है, यह रचना उपलब्ध है ।