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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य इस काव्यमे चौबीस तीर्थकरोके पंचकल्याणकोको तिथियोंका उल्लेख हुआ है। वह उल्लेख जैनआगमानुकूल है, अतः प्रामाणिक है।
कविने लिखा है कि तीर्थकरके पांच निर्मल कल्याणक सिद्धि प्राप्त कराने में पूर्ण रूपसे समर्थ है,
"सिद्धि सुहंकर सिद्धिपहु, पणविवि ति जयपयासण केवल ।
सिद्धिहिं कारण थुणमिहउ, सयलवि जिणकल्लाणइ नियमल ॥" कविका विश्वास है कि भगवान् जिनेन्द्रके पंचकल्याणकोंकी भक्ति, निविड़ अन्धकारको विदीर्ण करती है। वह अनेकानेक व्रत-उपवासोंके बराबर फल प्रदान करती है,
"एयमत्त एकुजि कल्लाणउ, विहि निधियडि अहवह गट्ठाणउ । तिहु आयंबिलु जिणु मणइ, चउहु होइ उपवास गिहस्थहं ।।
अहवा सयलह खबण विहिं, विणयचंदि मुणि कहिउ समस्थहं ।।" भगवान् ऋषभदेव, वासुपूज्य, विमलनाथ और नमिप्रभुको जन्म-तिथियोका उल्लेख करते हुए कविने लिखा है, "पढम परिक दुइजहिं आसाढहिं, रिसह गम्भु तहि उत्तर साढहिं । अंधारी छट्टहिं तहिमि, वंदमि बासुपूज गब्भुच्छउ ॥ विमलु सुसिद्धउ अट्ठमिहिं, दसमिहिं नमिजिण जम्मणु तहतउ ॥"
इस रासकी भी भाषा प्राचीन हिन्दी ही है। उसपर अपभ्रंश और प्राकृतका प्रभाव है।
२०. कवि ठकुरसी ( वि० सं० १५७८ ) ____कवि ठकुरसी, खण्डेलवाल जातिमे उत्पन्न हुए थे। उनका गोत्र पहाड़या था। उनके पिताका नाम घेल्ह था, जो एक कवि थे। उनकी माता धर्मनिष्ठ थीं। दोनोंका ही प्रभाव पुत्रपर पड़ा, और ठकुरसी एक उदार कवि बन सके ।
उनका जन्म चम्पावती नामकी नगरीमे हुआ था, जो उस समय धनधान्यादिसे विभूषित थी। वहाँ भगवान् पार्श्वनाथका एक जिन-मन्दिर भी था, जहाँ
१. घेल्ह सुतनु गुण गाऊँ, जगि प्रगट ठकुरसी नाऊँ। पंचेन्द्रिय बेल, प्रशस्ति । दीवान बधीचन्दजी जयपुरको हस्तलिखित प्रति, गुटका नं० १६०, पृ० १२६ ।