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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य डालकर रंगता है। काव्यको चूनड़ी वह है, जो बिखरे प्रकीर्णकोंसे छापी गयी हो। इसे 'चुण्णी' या 'चूणि' भी कहते है। मुनि विनयचन्द्रके इस काव्यमे, एक पत्नीने पतिसे ऐसी 'चूनड़ी' छपानेकी प्रार्थना की है, जिसे ओढ़कर जिन-शासनमे विचक्षणता प्राप्त हो जाये।
'चूनड़ो' मे साकेतिक रूपसे जैनधर्म-सम्बन्धी चर्चाओंका संकलन है। उन्हें पढ़कर जैनधर्मके प्रति श्रद्धाका जन्म होता है।
पत्नीको पूरा विश्वास है कि ऐसी 'चूनड़ी' में से, शरद्कालको जुन्हयाको भांति शीतल प्रकाश छिटकेगा, जिससे समूचा अज्ञानान्धकार नष्ट हो जायेगा। उसकी इच्छा है कि वह शीतल जुन्हाई, उसके हृदयमे वैसे ही निवास करे, जैसे मानसरोवरमे हंसवधू रहती है,
"पणवउँ कोमल-कुवलय-णयणी अमिय गडम जण-सिव-यर-वयणी। पसारवि सानंद जोराह जिम जा अंधारउ सयलु वि णासह । सा महु णिवसउ माणसहि
हंस-वधू जिम देवि सरासइ ॥॥" पत्नीने मोह महातमको तोड़नेके लिए दिनकरके समान पंचगुरुसे भी प्रार्थना की है कि उसका पति ऐसी चूनड़ी लावे, जिसके सहारे वह भव-समुद्रसे पार हो सके।
'चूनड़ी' की भाषामे, प्राकृत और अपभ्रंशके शब्दोंका प्रयोग अधिक हुआ है।
१. हीरा दंत-पति-पयडती। गोरउ पिउ बोलइ विहसंती ।। सुंदर जाइ सु चेइहरि, महु दय किज्जउ सुहय सुलक्खण । लइ छिपावहि चूनडिय हउँ जिण-सासणि सुठ्ठ वियक्खण ॥३॥ २. विणएं वंदिवि पंच-गुरु, मोह-महा-तम-तोडण-दिणयर । णाह लिहावहि चूनडिय मुद्धउ पभणइ पिउ जोडिवि कर । पहला ध्रुवक ।
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