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________________ २६७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "ऊंकार नमामि सोहे भगम अपार, अति यह तत्तमार मंत्रन का मुख्य मान्यो है। इनहीं त जोग मिद्धि साध की सिद्धि जान, साधु मय सिद्ध तिन धुर उर धान्यो है। पूरन परम परसिद्ध परसिद्ध रूप, बुद्धि अनुमान याको विबुध बखान्यो है। जपै जिनरंग एसो भक्षर अनादि आदि, ___जाको हेय मुन्द्धि तिन याको भेद जान्यो है ॥३॥" रंग-बहतरी इसको 'प्रास्ताविक दोहा' और 'दूतावन्ध बहतरी के नानसे भी पुकारा जाता है। इसमे ७२ दोहे है। उनका विषय नीति, अध्यात्म और भक्तिसे सम्बन्धित है। बहत पहले इसका प्रकाशन दिल्लीसे हुआ था। अब उसका पुन. प्रकाशन 'वीरवाणी' मे हुआ है। अगरचन्द नाहटाका सम्पादन है। अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेरवाली प्रति उनका मूलाधार है। इस प्रतिमे ७१ दोहे है । बाह्य और अन्तः दोनो ही दृष्टियोसे काव्य उत्तम कोटिका है । एक दोहेमे यमक अलंकारको छटाके साथ भक्तिका रंग है, "धरम ध्यान ध्या नहीं, रहे जु आरत माहिं । जिनरंग वे कैस नर, जिन रंग रत्ता नाहिं ॥२॥" यह मनुष्य अपने जीवनका बोझ नहीं उठा पाता, इसपर भी अन्य बोझ स्वीकार करता जाता है, फिर भला वह अपने लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगा ? एक उपाय है । जगदीशको जपे, ध्यान करे, पूजा करे, "अपना मार न उठ सके, और लेत पुनि सीस । सो पेडे क्यों पहुंच है, जपि जिनरंग जगदीश ॥५०॥" एक पक्षी ऐसे पिंजडेमे बन्द है, जिसके दस दरवाजे है। उन दरवाजोंके होते हुए भी यदि पक्षी उडता नहीं, तो आश्चर्य है, यदि उड़ जाता है, तो आश्चर्य क्या है। उसे उड़ ही जाना चाहिए । यहाँ शरीरको पिंजडा बनाया है और दम इन्द्रियोंको दस दरवाजे । आत्मारूपी पक्षी उममे कैद है। मौतके समय वह उसमे-से निकल जाता है। कविको दृष्टिमे यह स्वाभाविक है। कविने इस स्वाभाविकताका उत्तम ढंगसे निरूपण किया है । रूपकको शान निराली है, "दसूं द्वार का पिंजग, आतम पंछी मांहि । जिनरंग अचरिज रहनु है, गये अचम्मौ नाहिं ॥१८॥"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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