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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
ज्ञानरूपी उजाला फैल जायेगा । इस भाँति मुझे कभी भी मोह मोहित न कर सकेगा । हमारे गुरु संसारके भोगोसे विरक्त होकर मोअके लिए तपस्या है । वे भी भगवान् जिनेन्द्रके गुणोका नित्य प्रति जाप करते है,
कर रहे
" दीपक उदीत सजोत जगमग सुगुरुपद पूजों सदा । तमनाश ज्ञान उजास स्वामी, मोहि मोह न ही कदा ॥ भव भोग तन वैराग्यधार, निहार शिव पद तपत हैं। तिहुँ जगतनाथ अधार साधु सु, पूज नित गुन जपन हैं ।' 'पंचपरमेष्ठी' का साधु ही गुरु है। मुनि भी उसीका नाम है। वे राग-द्वेषको दूर कर दयाका पालन करते है । तीनो लोक उनके सामने प्रकट रहते है । वे चारों आराधनाओके समूह है । वे दुर्द्धर्प पंच महाव्रतोको वारण करते है और छहों द्रव्योंको जानते हैं। उनका मन सात भगोके पालनमे लगा रहता है और उन्हें आठो कृतियाँ प्राप्त हो जाती है,
" एक दया पालें मुनिराजा, राग द्वेष हैं हरनपरं । atri लोक प्रगट सब देखें, चारों श्राराधन निकर || पंच महाव्रत दुद्धर धारै, छहों दरत्र जानें सुहितं । सात मंगवानी मन लावैं, पावैं आठ ऋद्धि उचितं ॥"
नेमि राजमति जखड़ी
इसकी एक हस्तलिखित प्रति, जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे, १२४ में अंकित है । इसका अन्तिम भाग इस प्रकार है,
"तीस दिन अरु, निराधार जी ।
हेम मणे जीन जानिये । ते पावै भव पार जी ।"
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गुटका नं०
रोहिणी व्रत कथा
इसकी हस्तलिखित प्रति, मसजिद खजूर बेहलीके जैन मन्दिरमें मौजूद है।
१. गुरु-पूजा, पद्य ६ ।
२. गुरु-पूजाकी जयमाला, पद्य ३
६० पं० मनोहरदास ( वि० सं० १७०५ - १७२८ )
इनका दूसरा नाम मनोहरलाल भी है। इन्होंने कविनामे प्रायः 'मनोहर' का प्रयोग किया है । ये खण्डेलवाल जातिके सोनी गोत्रमे उत्पन्न हुए थे । कभी इनके पूर्वजोंने जैन संघ निकाला होगा, इस कारण उनको मूल-संत्री भी कहा जाता है ।