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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि है। इस भक्तामरकी प्रशमा करते हुए पं० नाथूरामजी प्रेमोने लिखा है, अनुवाद सुन्दर है और इसका खूब ही प्रचार है । इससे मालूम होता है कि हेमराजजी कवि भी अच्छे थे।"
मूल संस्कृतका भक्तामर शार्दूलविक्रीडित छन्दोमे लिखा गया है, किन्तु पाण्डे हेमराजने चौगाई, छप्नय, नाराच और दोहोका प्रयोग किया है। चौपाईमें कुछ क्लिष्टता तो है, किन्तु उसमे सुन्दरतामे कोई विघात नही आ पाया है।
एक स्थानपर कविने लिखा है कि भगवान्के नाममे असीम बल है। जिन शत्रुओंके प्रचण्ड बलको देखकर धैर्य विलुप्त हो जाता है, वे भगवान्का नाम लेने मात्रसे ही ऐसे भाग जाते हैं, जैसे दिनकरके उदयसे अन्धकार विलुप्त हो जाता है,
"राजन को परचंड देख बल धीरज छीजै ॥ नाथ तिहारे नाम त सो छिनमाहिं पलाय ।
ज्यों दिनकर परकाश ते अंधकार विनशाय ॥"" आराध्यके सम्मुख अपनी लघुताका प्रदर्शन भक्तिका मुख्य अंग है। एक स्थानपर भक्त हाथ जोड़कर कहता है कि हे भगवन् ! शक्ति-हीन होते हुए भी, भक्ति-भावके कारण आपकी स्तुति कर रहा हूँ, ठोक वैसे ही जैसे कोई मृगी बलहीन होते हुए भी, अपने पुत्रकी रक्षाके लिए मृगपतिके सम्मुख चली जाती है,
"सो मैं शक्ति हीन थुनि करूँ, मकि भाव वश कछु नहिं डरूँ।
ज्यो मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ॥" भक्तको यह पूरा विश्वास है कि भगवानकी शरणमे जानेसे जन्म-जन्मके पाप क्षण-मात्रमे नष्ट हो जाते हैं,
"तुम जस जपत जन छिनमाहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं।
ज्यौं रवि उगै फटै ततकाल, अलि वत नील निशा-तम-जाल ॥" गुरु-पूजा
पाण्डे हेमराजको लिखी हुई 'गुरु-पूजा' जैन-परम्पराके अनुसार ही रची गयी है। अर्थात् पहले अष्ट द्रव्यपूजा है और फिर जयमाला। यह पं० पन्नालाल बाकलीवाल द्वारा सम्पादित 'बृहज्जिनवाणी संग्रह मे संकलित है।
दीपकसे पूजा करते हुए पूजक कहता है कि मैं जगमगाते दीपकसे सुगुरुके चरणोकी सदैव पूजा करता हूँ। इससे अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जायेगा, और
१. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ५२ । २. पाण्डे हेमराज, भक्तामर भाषा, ४२वाँ षट्पद, दृज्जिनवाणी संग्रह, मदनगंज, किशनगढ, सितम्बर १६५६, पृ० २०१।