SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य "ठौर और सोधत फिरत, काहे अंध अबेव । तेरे ही घट में बमो, सदा निरंजन देव ॥"' कविने सन्त कवियोकी भांति ही कहा कि - शुद्धातमके अनुभव के बिना तीर्थ क्षेत्रोंमें स्नान करना, मूंड़ मुंडाना और तप तपना सभी कुछ व्यर्थ है। "सिव साधन कौं जानियै अनुमौ बड़ो इलाज। मूढ सलिल मंजन करत सरत न एको काम ॥ ५ ॥ कोटि बरस लौं धोइये अठसठ तीरथ नीर। सदा अपावन ही रहै मदिरा कुम्म सरीर ॥३०॥ तज्यौ न परिगह सौं ममत मिव्यौ न विष विलास । अरे मूंढ सिर मुंडि के क्यों न छान्यो घरबास ॥९॥ कोटि जनम लौं तप तपै मन बच काय समेत । सुद्धातम अनुभौ बिना क्यों पानै सिवषेत ॥ १८ ॥" हितोपदेश बावनी इसे 'अक्षर बावनी' भी कहते हैं। इसमें हिन्दी वर्णमालाके ५२ अक्षरोंमे से प्रत्येकपर एक-एक पद्यको रचना की गयी है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरके वेष्टन नं० २२२२ में निबद्ध है। उसपर लेखनकाल सं० १७५७ पड़ा है। यह प्रति विनयसागर गणिके शिष्य पं० विनोदसागरने यशरूप देवीके पढ़नेके लिए रूपनगरमे लिखी थी। बावनीका भक्ति-भावसे भरा एक सवैया देखिए, "मन मेरो उमग्यौ जिन गुण गायबो, टालत है गर्भवास सिवपुर दीयै वास छाँडि कै जिणंददेव और कहाध्यायबो। तन मन लागो तोय कछु न सुहाचे मोय सब दुंद दूरि करि तोसुं चित लायबो । सकल साहिब मेरो प्रगट प्रताप तेरो दोन को दयाल पायो सब सुख पायबो। हेमराज मणई मुनि सुरागें सजन जन मन मेरो उमग्यौ है जिण गुण गायवो ॥ ३॥" हिन्दी-भक्तामर आजसे २५ वर्ष पूर्व यह स्तोत्र, पं० पन्नालालजी बाकलीवाल-द्वारा सम्पादित 'बृहज्जिनवाणी संग्रह मे छपा था। अभी 'ज्ञानपीठपूजांजलि' में भी प्रकाशित हुआ १. वही, २५वाँ दोहा। २. संवत् १७५७ मिती वैशाख सुदी ११ दिने गुरुवासरे लेखयोस्तुः। श्री विनयसागर गणि शिष्य पं० विनोदसागरेण लेखयोस्तुः, रूपनगरमध्ये, बहूजी यशरूपदेवी वाचनार्थ-लेखयामि ।। प्रशस्ति, पृ० १२ । २८
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy