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जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ वे गुण नही जो आपके सहारे न टिके हों।" यशोविजयने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' में, श्री धर्मसूरिने 'श्रीपार्श्वजिनस्तवनम्' मे और आनन्दमाणिक्य गणिने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' मे इन्ही विचारोको प्रकट किया है। हिन्दी कवियोंने भी इस सरस परम्पराको अपनाया । कवि द्यानतरायका एक पद इस प्रकार है,
"रे जिय जनम लाहो लेह । चरन ते जिन भवन पहुँचै, दान दें कर जेह ॥१॥ उर सोई जामैं दया है, अरु रुधिर को गेह । जोम सो जिननाम गाचे, साँच सो करै नेह ॥२॥ आँख ते जिनराज देखें और आँखें खेह । श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ तप तपै सो देह ॥३॥ सफल तन इह माँति है है, और भाँति न केह ।
है सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सद्गुरु येह ॥४॥" कवि मनरामके 'मनराम-विलास'मे भी ऐसे ही एक पदकी रचना हुई है। उन्होंने लिखा है कि वे ही नेत्र सफल है, जो निरंजनका दर्शन करते है। सीस तभी सार्थक है, जब जिनेन्द्रके समक्ष झुके। उन्ही श्रवणोंकी सार्थकता है, जो जिनेन्द्रके सिद्धान्तको मुनते है। जिनेन्द्रके नामको जपनेमे ही मुखको शोभा है। उत्तम हृदय वही है, जिसमे धर्म बसता है। हाथोंकी सफलता प्रभुको प्राप्त करनेमे ही है। चरण तभी सार्थक है, जब वे परमार्थके पथपर दौड़ते है। "नैन सफल निर] जु निरंजन, सीस सफल नमि ईसर झावहि । श्रवन सुफल जिहि सुनत सिद्धान्तहि, मुषज सफल जपिए जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्म बसै ध्रुव, करन सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि । चरन सफल 'मनराम' वहै, गनि जे परमारथ के पथ धावहि ॥"
भैया भगवतीदासके 'पंचेन्द्रिय संवाद' मे प्रत्येक इन्द्रियने अपनी प्रशंसा यह कहकर ही की है कि मेरे-द्वारा जैसी भगवद्भक्ति सम्पन्न हो सकती है, अन्यसे नही। एक स्थानपर जीभने कहा, "जीमहि ते जपत रहै, जगत जीव जिन नाम । जसु प्रसाद तें सुख लहै, पावै उत्तम ठाम ॥" इसी भांति आँखका कथन है कि आँखसे जिनेन्द्र बिम्ब और प्रतिमा देखे बिना इस जीवका कल्याण सम्भव नहीं है । सारांश यह है कि 'पंचेन्द्रिय संवाद' में प्रत्येक इन्द्रियकी सार्थकता भगव
१. द्यानतपद संग्रह, कलकत्ता, वॉ पद, पृ०४। २. मनराम विलास, मन्दिर ठोलियान, जयपुर, वेष्टन नं० ३६५, ६०वॉ पद्य ।