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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि द्भक्तिमें ही मानो गयी है । जगराम, जोधराज, विनयविजय, देवाब्रह्म और रूपचन्दके पदोमें भी यह ही बात है।
भक्तिके लिए मनको चेतावनी
कबीर आदि निर्गुनिये सन्तोको साखियों और पदोमे 'चेतावणी को अंग' प्रमुख है । इस अंगमे मन या चेतनको संसारके माया-मोहसे सावधान किया गया है। उसका तात्पर्य यह ही है कि यह मन संसारके जालमे फंसा है। उसे चाहिए कि वहाँसे निकलकर ब्रह्मको भक्तिमें तल्लीन हो। चेतावनीवाली बात जैन और बौद्ध-साहित्यमे अधिक मिलती है, क्योंकि ये दोनों ही धर्म विरक्तिप्रधान है । वैसे तो जैन प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भक्तिपरक काव्यमें वैराग्यका स्वर ही प्रबल है, किन्तु उनमे चेतनको सम्बोधन कर रचे गये हिन्दी के पद-साहित्यजैसा लालित्य नहीं है । बौद्धोंके सिद्ध साहित्यमे भी नहीं है। ___ कवि भूधरदास अपने पदोके प्रसादगुणके लिए प्रसिद्ध है । मन, जीव या चेतनको सम्बोधन कर लिखे गये उनके पद अत्यधिक सरस है । एक पदमे उन्होंने लिखा है, "यह संसार रैनका सपना है, तन और धन पानीके बुलबुलेके समान हैं। यौवनका कोई भरोसा नहीं, वह अग्निमें तृणके ढेरकी भांति जल जायेगा, दूसरी ओर काल कुदाल लिये सिरपर खड़ा है, तू अपने मनमे फूला हुआ क्या समझ रहा है। कन्धेपर कुदाल रखकर मोहरूपी पिशाचने तेरी बुद्धिको काट दिया है। अतः हे जीव ! दुर्मतिके सिरपर धूल डालकर श्री राजमतीवरका भजन कर।"
'भैया' के पद तेजस्वितासे समन्वित है। उन्होंने अनेक पद्योंमें चेतनको करारी फटकार दी है। उन्होंने एक सवैयामे लिखा है, "अरे ओ चेतन !
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भगवन्त भजन क्यों भूला रे। यह संसार रैन का सपना, तन धन वारि बबूला रे ॥ इस जोवन का कौन भरोसा, पावक मे तृण पूला रे । काल कुदार लिये सिर ठाड़ा, क्या समझे मन फूला रे ।। मोह पिशाच छल्यो मति मारे, निज कर कंध वसूला रे । भज श्री राजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ॥ भूधरविलास, कलकत्ता, १६वॉ पद ।