________________
जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ
२३ अनादिकाल व्यतीत हो गया, क्या तुझे अब भी चेत नहीं हुआ। चार दिनके लिए ठाकुर हो जानेसे क्या तू गतियोंमे घूमना भूल गया है। तू इन्द्रियोंके संग क्या लगा हुआ है। तू चेतनहारा होकर भी चेतता क्यों नही ?" भैयाकी फटकारोंका अन्त नहीं है। कही तो वे कहते है, "हे चेतन ! तेरी मति किसने हर ली है। तू अपने परम पदको क्यो नही समझता।" कही कहा, "हे चेतन ! उन दुःखोंको भूल गये, जब नरकमे पड़े संकट सहते थे, अब महाराज हो गये हो।" अन्तमें समझाते हुए कहा,
"भगवंत भजो सु तजो परमाद, समाधि के संग में रंग रहो।
अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि, गहो निज शुद्धि ज्यों सुक्ख लहो ॥" अपने ही घटमे बसे चिदानन्दको यह चेतन देख नहीं पाता । जब देखता ही नही तो भक्ति कैसी? किन्तु इसका कारण क्या है ? कारण है माया। जैन साहित्यमे मायापर बहुत कुछ लिखा गया है। मायाका सम्बन्ध मोहनीय कर्मसे है। आठ कर्मोमे मोहनीय प्रबलतम माना गया है। मोहके कारण ही यह जीव भटकता फिरता है। मोह और माया पर्यायवाची शब्द है। कबीरने भी मायाको स्वीकार किया है। कबीरके घटमे बिराजे रामको न देख पानेमे भी माया ही कारण है। जैन कवियोने मायाको 'ठगनी' कहा है, क्योकि वह समूचे संसारको ठगकर खा जाती है। जो इसपर विश्वास करता है, वह मूर्ख पीछेसे पछताता है। कबीरने मायाको महाठगनी कहा है, क्योकि उसके जालसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी बच नहीं सके है। इस मायासे बचाने के लिए देवाब्रह्मने एक
१. केवल रूप विराजत चेतन, ताहि विलोकि अरे मतवारे । काल अनादि वितीत भयो, अजहूँ तोहि चेत न होत कहा रे ॥ भूलि गयो गति को फिरबो, अब तो दिन च्यारि भये ठकुरारे। लागि कहा रह्यो अक्षनि के संग, चेतत क्यो नहिं चेतन हारे ।
ब्रह्मविलास, शतअष्टोत्तरी, ५०वॉ पद्य, पृ० १६ ।। २. ब्रह्मविलास, परमार्थपद पंक्ति, २०वॉ और २१वॉ पद, पृ० ११६ । ३. ब्रह्मविलास, शतअष्टोत्तरी, १०२वॉ पद्य, पृ० ३१ । ४. सुन ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया। टुक विश्वास किया जिन तेरा सो मूरख पिछताया ॥
भूधरदास, भूधरविलास, वॉ पद, पृ० ५। ५. माया महाठगनी हम जानी।
तिरगुन फाँसि लिये कर डोल, बोलै मधुरी बानी।। कबीर, सबद, सन्तसुधासार, वियोगी हरि सम्पादित, दिल्ली, पृ० १०१ ।