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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पुत्र लालजीने आलमगंजके झांझूको यह सत्रह दे दिया। जगतरायने उससे लेकर संकलनका नाम 'आगम विलास' रख दिया।
सम्यक्त्व-कौमुदीको पं० नाथूराम प्रेमीने जगतरायको कृति कहा है। उन्होंने उसका रचनाकाल वि० सं० १७२१ माना है। श्री अगरचन्दजी नाहटाका कथन है, "प्रेमीजी और कामताप्रसादजीने तो इस ग्रन्थको जगतरायका हो बनलाया है क्योंकि उन्होने प्रति व प्रशस्ति नहीं देखी।" प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इसकी रचना वि० सं० १७२२ वैशाख सुदो १३ को हुई थी। इसमे ४३३६ पद्य है। इसके रचयिता कवि काशीदास थे। किन्तु इस प्रशस्तिके अन्तमे लिखा है, 'इति श्रीमन् महाराज श्री जगतरायजी विरचितायां सम्यक्त्व कौमुदी-कथायां अप्टम् कथानकम् सम्पूर्णम् ।" इसका अर्थ है कि जगतरायके द्वारा विरचित सम्यक्त्वकौमुदीमें आठवां कथानक पूरा हुआ। डॉ० ज्योतिप्रसादने 'विरचित' शब्दको दूसरोके द्वारा रचवानेके अर्थमे लिया है, किन्तु विरचित शब्द स्वयं रचनेकै अर्थम ही आता है। इसके अतिरिक्त प्रशस्तिमे यह भी लिखा हुआ है,
"रामचंद सुत जगत अनूप, जगलराय गुण ज्ञायक भूप।
निन यह कथा ज्ञान के काज, वरणी आगे समकिन साज ॥"" ऐसा प्रतीत होता है कि जगतरायने वि० सं० १७२१ मे इसकी रचना की, और काशीदासने वि० सं० १७२२ मे उसकी प्रतिलिपि, उनके पुत्र टेकचन्दके पढ़ानेके लिए की । इस कथामे अनेकानेक जिनेन्द्र भक्तोकी कथाएं है।
'पद्मनन्दी पचविंशतिका' ज्ञानचन्द जैनीकी "दिगम्बर जैन भाषा प्रन्थ नामावली' के अनुसार जगतरायको कृति है। किन्तु उसकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि
१. वही, पृ० ४२ । २. भारतीय साहित्य, वर्ष २, अंक २, आगरा, पृ० १८० । ३. विक्रम संवत् तै जानि, सत्रह से बाईस बखान । माधवमास उजियारो सही, तिथि तेरस भुसुत सौं लहो ।। ता दिन ग्रंथ सम्पूर्ण भयो, समकित ज्ञान सकल तरु बयो । काशीदास, सम्यक्त्व कौमुदी, प्रशस्ति, भारतीय साहित्य, पृ० १८० । ४. पुष्पिकामें भी जगतरायके प्रसंगसे 'विरचिताया' पदका प्रयोग करना इस बातको निर्विवाद सूचित करता है कि जगतराय ने इस ग्रन्थको रचा नहीं था, रचवाया था। डॉ. ज्योतिप्रसाद, हिन्दी जैन साहित्यके कुछ अज्ञात कवि, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १०, पृ० ३७६ । ५. कवि काशीदास, सम्यक्त्वकौमुदी, प्रशस्ति, भारतीय साहित्य, पृ० १८० । ६. बाबू ज्ञानचन्द जैनी, दिगम्बर जैन भाषा ग्रन्थ नामावली, लाहौर, सन् १६०१ ई०, पृ०४, नम्बर 1